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1. | चार महीने गुज़र गए। नीसान के महीने के एक दिन जब मैं शहनशाह अर्तख़्शस्ता को मै पिला रहा था तो मेरी मायूसी उसे नज़र आई। पहले उस ने मुझे कभी उदास नहीं देखा था, |
2. | इस लिए उस ने पूछा, “आप इतने ग़मगीन क्यूँ दिखाई दे रहे हैं? आप बीमार तो नहीं लगते बल्कि कोई बात आप के दिल को तंग कर रही है।” मैं सख़्त घबरा गया |
3. | और कहा, “शहनशाह अबद तक जीता रहे! मैं किस तरह ख़ुश हो सकता हूँ? जिस शहर में मेरे बापदादा को दफ़नाया गया है वह मल्बे का ढेर है, और उस के दरवाज़े राख हो गए हैं।” |
4. | शहनशाह ने पूछा, “तो फिर मैं किस तरह आप की मदद करूँ?” ख़ामोशी से आस्मान के ख़ुदा से दुआ करके |
5. | मैं ने शहनशाह से कहा, “अगर बात आप को मन्ज़ूर हो और आप अपने ख़ादिम से ख़ुश हों तो फिर बराह-ए-करम मुझे यहूदाह के उस शहर भेज दीजिए जिस में मेरे बापदादा दफ़न हुए हैं ताकि मैं उसे दुबारा तामीर करूँ।” |
6. | उस वक़्त मलिका भी साथ बैठी थी। शहनशाह ने सवाल किया, “सफ़र के लिए कितना वक़्त दरकार है? आप कब तक वापस आ सकते हैं?” मैं ने उसे बताया कि मैं कब तक वापस आऊँगा तो वह मुत्तफ़िक़ हुआ। |
7. | फिर मैं ने गुज़ारिश की, “अगर बात आप को मन्ज़ूर हो तो मुझे दरया-ए-फ़ुरात के मग़रिबी इलाक़े के गवर्नरों के लिए ख़त दीजिए ताकि वह मुझे अपने इलाक़ों में से गुज़रने दें और मैं सलामती से यहूदाह तक पहुँच सकूँ। |
8. | इस के इलावा शाही जंगलात के निगरान आसफ़ के लिए ख़त लिखवाएँ ताकि वह मुझे लकड़ी दे। जब मैं रब्ब के घर के साथ वाले क़िलए के दरवाज़े, फ़सील और अपना घर बनाऊँगा तो मुझे शहतीरों की ज़रूरत होगी।” अल्लाह का शफ़ीक़ हाथ मुझ पर था, इस लिए शहनशाह ने मुझे यह ख़त दे दिए। |
9. | शहनशाह ने फ़ौजी अफ़्सर और घुड़सवार भी मेरे साथ भेजे। यूँ रवाना हो कर मैं दरया-ए-फ़ुरात के मग़रिबी इलाक़े के गवर्नरों के पास पहुँचा और उन्हें शहनशाह के ख़त दिए। |
10. | जब गवर्नर सन्बल्लत हौरूनी और अम्मोनी अफ़्सर तूबियाह को मालूम हुआ कि कोई इस्राईलियों की बहबूदी के लिए आ गया है तो वह निहायत नाख़ुश हुए। |
11. | सफ़र करते करते मैं यरूशलम पहुँच गया। तीन दिन के बाद |
12. | मैं रात के वक़्त शहर से निकला। मेरे साथ चन्द एक आदमी थे, और हमारे पास सिर्फ़ वही जानवर था जिस पर मैं सवार था। अब तक मैं ने किसी को भी उस बोझ के बारे में नहीं बताया था जो मेरे ख़ुदा ने मेरे दिल पर यरूशलम के लिए डाल दिया था। |
13. | चुनाँचे मैं अंधेरे में वादी के दरवाज़े से शहर से निकला और जुनूब की तरफ़ अझ़्दहे के चश्मे से हो कर कचरे के दरवाज़े तक पहुँचा। हर जगह मैं ने गिरी हुई फ़सील और भस्म हुए दरवाज़ों का मुआइना किया। |
14. | फिर मैं शिमाल यानी चश्मे के दरवाज़े और शाही तालाब की तरफ़ बढ़ा, लेकिन मल्बे की कस्रत की वजह से मेरे जानवर को गुज़रने का रास्ता न मिला, |
15. | इस लिए मैं वादी-ए-क़िद्रोन में से गुज़रा। अब तक अंधेरा ही अंधेरा था। वहाँ भी मैं फ़सील का मुआइना करता गया। फिर मैं मुड़ा और वादी के दरवाज़े में से दुबारा शहर में दाख़िल हुआ। |
16. | यरूशलम के अफ़्सरों को मालूम नहीं था कि मैं कहाँ गया और क्या कर रहा था। अब तक मैं ने न उन्हें और न इमामों या दीगर उन लोगों को अपने मन्सूबे से आगाह किया था जिन्हें तामीर का यह काम करना था। |
17. | लेकिन अब मैं उन से मुख़ातिब हुआ, “आप को ख़ुद हमारी मुसीबत नज़र आती है। यरूशलम मल्बे का ढेर बन गया है, और उस के दरवाज़े राख हो गए हैं। आएँ, हम फ़सील को नए सिरे से तामीर करें ताकि हम दूसरों के मज़ाक़ का निशाना न बने रहें।” |
18. | मैं ने उन्हें बताया कि अल्लाह का शफ़ीक़ हाथ किस तरह मुझ पर रहा था और कि शहनशाह ने मुझ से किस क़िस्म का वादा किया था। यह सुन कर उन्हों ने जवाब दिया, “ठीक है, आएँ हम तामीर का काम शुरू करें!” चुनाँचे वह इस अच्छे काम में लग गए। |
19. | जब सन्बल्लत हौरूनी, अम्मोनी अफ़्सर तूबियाह और जशम अरबी को इस की ख़बर मिली तो उन्हों ने हमारा मज़ाक़ उड़ा कर हिक़ारतआमेज़ लहजे में कहा, “यह तुम लोग क्या कर रहे हो? क्या तुम शहनशाह से ग़द्दारी करना चाहते हो?” |
20. | मैं ने जवाब दिया, “आस्मान का ख़ुदा हमें काम्याबी अता करेगा। हम जो उस के ख़ादिम हैं तामीर का काम शुरू करेंगे। जहाँ तक यरूशलम का ताल्लुक़ है, न आज और न माज़ी में आप का कभी कोई हिस्सा या हक़ था।” |
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