← Mark (11/16) → |
1. | वह यरूशलम के क़रीब बैत-फ़गे और बैत-अनियाह पहुँचने लगे। यह गाँओ ज़ैतून के पहाड़ पर वाक़े थे। ईसा ने अपने शागिर्दों में से दो को भेजा |
2. | और कहा, “सामने वाले गाँओ में जाओ। वहाँ तुम एक जवान गधा देखोगे। वह बंधा हुआ होगा और अब तक कोई भी उस पर सवार नहीं हुआ है। उसे खोल कर यहाँ ले आओ। |
3. | अगर कोई पूछे कि यह क्या कर रहे हो तो उसे बता देना, ‘ख़ुदावन्द को इस की ज़रूरत है। वह जल्द ही इसे वापस भेज देंगे’।” |
4. | दोनों शागिर्द वहाँ गए तो एक जवान गधा देखा जो बाहर गली में किसी दरवाज़े के साथ बंधा हुआ था। जब वह उस की रस्सी खोलने लगे |
5. | तो वहाँ खड़े कुछ लोगों ने पूछा, “तुम यह क्या कर रहे हो? जवान गधे को क्यूँ खोल रहे हो?” |
6. | उन्हों ने जवाब में वह कुछ बता दिया जो ईसा ने उन्हें कहा था। इस पर लोगों ने उन्हें खोलने दिया। |
7. | वह जवान गधे को ईसा के पास ले आए और अपने कपड़े उस पर रख दिए। फिर ईसा उस पर सवार हुआ। |
8. | जब वह चल पड़ा तो बहुत से लोगों ने उस के आगे आगे रास्ते में अपने कपड़े बिछा दिए। बाज़ ने हरी शाख़ें भी उस के आगे बिछा दीं जो उन्हों ने खेतों के दरख़्तों से काट ली थीं। |
9. | लोग ईसा के आगे और पीछे चल रहे थे और चिल्ला चिल्ला कर नारे लगा रहे थे, “होशाना ! मुबारक है वह जो रब्ब के नाम से आता है। |
10. | मुबारक है हमारे बाप दाऊद की बादशाही जो आ रही है। आस्मान की बुलन्दियों पर होशाना ।” |
11. | यूँ ईसा यरूशलम में दाख़िल हुआ। वह बैत-उल-मुक़द्दस में गया और अपने इर्दगिर्द नज़र दौड़ा कर सब कुछ देखने के बाद चला गया। चूँकि शाम का पिछला वक़्त था इस लिए वह बारह शागिर्दों समेत शहर से निकल कर बैत-अनियाह वापस गया। |
12. | अगले दिन जब वह बैत-अनियाह से निकल रहे थे तो ईसा को भूक लगी। |
13. | उस ने कुछ फ़ासिले पर अन्जीर का एक दरख़्त देखा जिस पर पत्ते थे। इस लिए वह यह देखने के लिए उस के पास गया कि आया कोई फल लगा है या नहीं। लेकिन जब वह वहाँ पहुँचा तो देखा कि पत्ते ही पत्ते हैं। वजह यह थी कि अन्जीर का मौसम नहीं था। |
14. | इस पर ईसा ने दरख़्त से कहा, “अब से हमेशा तक तुझ से फल खाया न जा सके!” उस के शागिर्दों ने उस की यह बात सुन ली। |
15. | वह यरूशलम पहुँच गए। और ईसा बैत-उल-मुक़द्दस में जा कर उन्हें निकालने लगा जो वहाँ क़ुर्बानियों के लिए दरकार चीज़ों की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त कर रहे थे। उस ने सिक्कों का तबादला करने वालों की मेज़ें और कबूतर बेचने वालों की कुर्सियाँ उलट दीं |
16. | और जो तिजारती माल ले कर बैत-उल-मुक़द्दस के सहनों में से गुज़र रहे थे उन्हें रोक लिया। |
17. | तालीम दे कर उस ने कहा, “क्या कलाम-ए-मुक़द्दस में नहीं लिखा है, ‘मेरा घर तमाम क़ौमों के लिए दुआ का घर कहलाएगा’? लेकिन तुम ने उसे डाकुओं के अड्डे में बदल दिया है।” |
18. | राहनुमा इमामों और शरीअत के उलमा ने जब यह सुना तो उसे क़त्ल करने का मौक़ा ढूँडने लगे। क्यूँकि वह उस से डरते थे इस लिए कि पूरा हुजूम उस की तालीम से निहायत हैरान था। |
19. | जब शाम हुई तो ईसा और उस के शागिर्द शहर से निकल गए। |
20. | अगले दिन वह सुब्ह-सवेरे अन्जीर के उस दरख़्त के पास से गुज़रे जिस पर ईसा ने लानत भेजी थी। जब उन्हों ने उस पर ग़ौर किया तो मालूम हुआ कि वह जड़ों तक सूख गया है। |
21. | तब पत्रस को वह बात याद आई जो ईसा ने कल अन्जीर के दरख़्त से की थी। उस ने कहा, “उस्ताद, यह देखें! अन्जीर के जिस दरख़्त पर आप ने लानत भेजी थी वह सूख गया है।” |
22. | ईसा ने जवाब दिया, “अल्लाह पर ईमान रखो। |
23. | मैं तुम को सच्च बताता हूँ कि अगर कोई इस पहाड़ से कहे, ‘उठ, अपने आप को समुन्दर में गिरा दे’ तो यह हो जाएगा। शर्त सिर्फ़ यह है कि वह शक न करे बल्कि ईमान रखे कि जो कुछ उस ने कहा है वह उस के लिए हो जाएगा। |
24. | इस लिए मैं तुम को बताता हूँ, जब भी तुम दुआ करके कुछ माँगते हो तो ईमान रखो कि तुम को मिल गया है। फिर वह तुम्हें ज़रूर मिल जाएगा। |
25. | और जब तुम खड़े हो कर दुआ करते हो तो अगर तुम्हें किसी से शिकायत हो तो पहले उसे मुआफ़ करो ताकि आस्मान पर तुम्हारा बाप भी तुम्हारे गुनाहों को मुआफ़ करे। |
26. | [और अगर तुम मुआफ़ न करो तो तुम्हारा आस्मानी बाप तुम्हारे गुनाह भी मुआफ़ नहीं करेगा।]” |
27. | वह एक और दफ़ा यरूशलम पहुँच गए। और जब ईसा बैत-उल-मुक़द्दस में फिर रहा था तो राहनुमा इमाम, शरीअत के उलमा और बुज़ुर्ग उस के पास आए। |
28. | उन्हों ने पूछा, “आप यह सब कुछ किस इख़तियार से कर रहे हैं? किस ने आप को यह करने का इख़तियार दिया है?” |
29. | ईसा ने जवाब दिया, “मेरा भी तुम से एक सवाल है। इस का जवाब दो तो फिर तुम को बता दूँगा कि मैं यह किस इख़तियार से कर रहा हूँ। |
30. | मुझे बताओ, क्या यहया का बपतिस्मा आस्मानी था या इन्सानी?” |
31. | वह आपस में बह्स करने लगे, “अगर हम कहें ‘आस्मानी’ तो वह पूछेगा, ‘तो फिर तुम उस पर ईमान क्यूँ न लाए?’ |
32. | लेकिन हम कैसे कह सकते हैं कि वह इन्सानी था?” वजह यह थी कि वह आम लोगों से डरते थे, क्यूँकि सब मानते थे कि यहया वाक़ई नबी था। |
33. | चुनाँचे उन्हों ने जवाब दिया, “हम नहीं जानते।” ईसा ने कहा, “तो फिर मैं भी तुम को नहीं बताता कि मैं यह सब कुछ किस इख़तियार से कर रहा हूँ।” |
← Mark (11/16) → |