Romans (8/16)  

1. अब जो मसीह ईसा में हैं उन्हें मुज्रिम नहीं ठहराया जाता।
2. क्यूँकि रूह की शरीअत ने जो हमें मसीह में ज़िन्दगी अता करती है तुझे गुनाह और मौत की शरीअत से आज़ाद कर दिया है।
3. मूसवी शरीअत हमारी पुरानी फ़ित्रत की कमज़ोर हालत की वजह से हमें न बचा सकी। इस लिए अल्लाह ने वह कुछ किया जो शरीअत के बस में न था। उस ने अपना फ़र्ज़न्द भेज दिया ताकि वह गुनाहगार का सा जिस्म इख़तियार करके हमारे गुनाहों का कफ़्फ़ारा दे। इस तरह अल्लाह ने पुरानी फ़ित्रत में मौजूद गुनाह को मुज्रिम ठहराया
4. ताकि हम में शरीअत का तक़ाज़ा पूरा हो जाए, हम जो पुरानी फ़ित्रत के मुताबिक़ नहीं बल्कि रूह के मुताबिक़ चलते हैं।
5. जो पुरानी फ़ित्रत के इख़तियार में हैं वह पुरानी सोच रखते हैं जबकि जो रूह के इख़तियार में हैं वह रुहानी सोच रखते हैं।
6. पुरानी फ़ित्रत की सोच का अन्जाम मौत है जबकि रूह की सोच ज़िन्दगी और सलामती पैदा करती है।
7. पुरानी फ़ित्रत की सोच अल्लाह से दुश्मनी रखती है। यह अपने आप को अल्लाह की शरीअत के ताबे नहीं रखती, न ही ऐसा कर सकती है।
8. इस लिए वह लोग अल्लाह को पसन्द नहीं आ सकते जो पुरानी फ़ित्रत के इख़तियार में हैं।
9. लेकिन आप पुरानी फ़ित्रत के इख़तियार में नहीं बल्कि रूह के इख़तियार में हैं। शर्त यह है कि रूह-उल-क़ुद्स आप में बसा हुआ हो। अगर किसी में मसीह का रूह नहीं तो वह मसीह का नहीं।
10. लेकिन अगर मसीह आप में है तो फिर आप का बदन गुनाह की वजह से मुर्दा है जबकि रूह-उल-क़ुद्स आप को रास्तबाज़ ठहराने की वजह से आप के लिए ज़िन्दगी का बाइस है।
11. उस का रूह आप में बसता है जिस ने ईसा को मुर्दों में से ज़िन्दा किया। और चूँकि रूह-उल-क़ुद्स आप में बसता है इस लिए अल्लाह इस के ज़रीए आप के फ़ानी बदनों को भी मसीह की तरह ज़िन्दा करेगा।
12. चुनाँचे मेरे भाइयो, हमारी पुरानी फ़ित्रत का कोई हक़ न रहा कि हमें अपने मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारने पर मज्बूर करे।
13. क्यूँकि अगर आप अपनी पुरानी फ़ित्रत के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारें तो आप हलाक हो जाएँगे। लेकिन अगर आप रूह-उल-क़ुद्स की क़ुव्वत से अपनी पुरानी फ़ित्रत के ग़लत कामों को नेस्त-ओ-नाबूद करें तो फिर आप ज़िन्दा रहेंगे।
14. जिस की भी राहनुमाई रूह-उल-क़ुद्स करता है वह अल्लाह का फ़र्ज़न्द है।
15. क्यूँकि अल्लाह ने जो रूह आप को दिया है उस ने आप को ग़ुलाम बना कर ख़ौफ़ज़दा हालत में नहीं रखा बल्कि आप को अल्लाह के फ़र्ज़न्द बना दिया है, और उसी के ज़रीए हम पुकार कर अल्लाह को “अब्बा” यानी “ऐ बाप” कह सकते हैं।
16. रूह-उल-क़ुद्स ख़ुद हमारी रूह के साथ मिल कर गवाही देता है कि हम अल्लाह के फ़र्ज़न्द हैं।
17. और चूँकि हम उस के फ़र्ज़न्द हैं इस लिए हम वारिस हैं, अल्लाह के वारिस और मसीह के हममीरास। क्यूँकि अगर हम मसीह के दुख में शरीक हों तो उस के जलाल में भी शरीक होंगे।
18. मेरे ख़याल में हमारा मौजूदा दुख उस आने वाले जलाल की निस्बत कुछ भी नहीं जो हम पर ज़ाहिर होगा।
19. हाँ, तमाम काइनात यह देखने के लिए तड़पती है कि अल्लाह के फ़र्ज़न्द ज़ाहिर हो जाएँ,
20. क्यूँकि काइनात अल्लाह की लानत के तहत आ कर फ़ानी हो गई है। यह उस की अपनी नहीं बल्कि अल्लाह की मर्ज़ी थी जिस ने उस पर यह लानत भेजी। तो भी यह उम्मीद दिलाई गई
21. कि एक दिन काइनात को ख़ुद उस की फ़ानी हालत की ग़ुलामी से छुड़ाया जाएगा। उस वक़्त वह अल्लाह के फ़र्ज़न्दों की जलाली आज़ादी में शरीक हो जाएगी।
22. क्यूँकि हम जानते हैं कि आज तक तमाम काइनात कराहती और दर्द-ए-ज़ह में तड़पती रहती है।
23. न सिर्फ़ काइनात बल्कि हम ख़ुद भी अन्दर ही अन्दर कराहते हैं, गो हमें आने वाले जलाल का पहला फल रूह-उल-क़ुद्स की सूरत में मिल चुका है। हम कराहते कराहते शिद्दत से इस इन्तिज़ार में हैं कि यह बात ज़ाहिर हो जाए कि हम अल्लाह के फ़र्ज़न्द हैं और हमारे बदनों को नजात मिले।
24. क्यूँकि नजात पाते वक़्त हमें यह उम्मीद दिलाई गई। लेकिन अगर वह कुछ नज़र आ चुका होता जिस की उम्मीद हम रखते तो यह दरहक़ीक़त उम्मीद न होती। कौन उस की उम्मीद रखे जो उसे नज़र आ चुका है?
25. लेकिन चूँकि हम उस की उम्मीद रखते हैं जो अभी नज़र नहीं आया तो लाज़िम है कि हम सब्र से उस का इन्तिज़ार करें।
26. इसि तरह रूह-उल-क़ुद्स भी हमारी कमज़ोर हालत में हमारी मदद करता है, क्यूँकि हम नहीं जानते कि किस तरह मुनासिब दुआ माँगें। लेकिन रूह-उल-क़ुद्स ख़ुद नाक़ाबिल-ए-बयान आहें भरते हुए हमारी शफ़ाअत करता है।
27. और ख़ुदा बाप जो तमाम दिलों की तह्क़ीक़ करता है रूह-उल-क़ुद्स की सोच को जानता है, क्यूँकि पाक रूह अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ मुक़द्दसीन की शफ़ाअत करता है।
28. और हम जानते हैं कि जो अल्लाह से मुहब्बत रखते हैं उन के लिए सब कुछ मिल कर भलाई का बाइस बनता है, उन के लिए जो उस के इरादे के मुताबिक़ बुलाए गए हैं।
29. क्यूँकि अल्लाह ने पहले से अपने लोगों को चुन लिया, उस ने पहले से उन्हें इस के लिए मुक़र्रर किया कि वह उस के फ़र्ज़न्द के हमशक्ल बन जाएँ और यूँ मसीह बहुत से भाइयों में पहलौठा हो।
30. लेकिन जिन्हें उस ने पहले से मुक़र्रर किया उन्हें उस ने बुलाया भी, जिन्हें उस ने बुलाया उन्हें उस ने रास्तबाज़ भी ठहराया और जिन्हें उस ने रास्तबाज़ ठहराया उन्हें उस ने जलाल भी बख़्शा।
31. इन तमाम बातों के जवाब में हम क्या कहें? अगर अल्लाह हमारे हक़ में है तो कौन हमारे ख़िलाफ़ हो सकता है?
32. उस ने अपने फ़र्ज़न्द को भी दरेग़ न किया बल्कि उसे हम सब के लिए दुश्मन के हवाले कर दिया। जिस ने हमें अपने फ़र्ज़न्द को दे दिया क्या वह हमें उस के साथ सब कुछ मुफ़्त नहीं देगा?
33. अब कौन अल्लाह के चुने हुए लोगों पर इल्ज़ाम लगाएगा जब अल्लाह ख़ुद उन्हें रास्तबाज़ क़रार देता है?
34. कौन हमें मुज्रिम ठहराएगा जब मसीह ईसा ने हमारे लिए अपनी जान दी? बल्कि हमारी ख़ातिर इस से भी ज़ियादा हुआ। उसे ज़िन्दा किया गया और वह अल्लाह के दहने हाथ बैठ गया, जहाँ वह हमारी शफ़ाअत करता है।
35. ग़रज़ कौन हमें मसीह की मुहब्बत से जुदा करेगा? क्या कोई मुसीबत, तंगी, ईज़ारसानी, काल, नंगापन, ख़त्रा या तल्वारों?
36. जैसे कलाम-ए-मुक़द्दस में लिखा है, “तेरी ख़ातिर हमें दिन भर मौत का सामना करना पड़ता है, लोग हमें ज़बह होने वाली भेड़ों के बराबर समझते हैं।”
37. कोई बात नहीं, क्यूँकि मसीह हमारे साथ है और हम से मुहब्बत रखता है। उस के वसीले से हम इन सब खतरों के रू-ब-रू ज़बरदस्त फ़त्ह पाते हैं।
38. क्यूँकि मुझे यक़ीन है कि हमें उस की मुहब्बत से कोई चीज़ जुदा नहीं कर सकती : न मौत और न ज़िन्दगी, न फ़रिश्ते और न हुक्मरान, न हाल और न मुस्तक़बिल, न ताक़तें,
39. न निशेब और न फ़राज़, न कोई और मख़्लूक़ हमें अल्लाह की उस मुहब्बत से जुदा कर सकेगी जो हमें हमारे ख़ुदावन्द मसीह ईसा में हासिल है।

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