Romans (2/16)  

1. ऐ इन्सान, क्या तू दूसरों को मुज्रिम ठहराता है? तू जो कोई भी हो तेरा कोई उज़्र नहीं। क्यूँकि तू ख़ुद भी वही कुछ करता है जिस में तू दूसरों को मुज्रिम ठहराता है और यूँ अपने आप को भी मुज्रिम क़रार देता है।
2. अब हम जानते हैं कि ऐसे काम करने वालों पर अल्लाह का फ़ैसला मुन्सिफ़ाना है।
3. ताहम तू वही कुछ करता है जिस में तू दूसरों को मुज्रिम ठहराता है। क्या तू समझता है कि ख़ुद अल्लाह की अदालत से बच जाएगा?
4. या क्या तू उस की वसी मेहरबानी, तहम्मुल और सब्र को हक़ीर जानता है? क्या तुझे मालूम नहीं कि अल्लाह की मेहरबानी तुझे तौबा तक ले जाना चाहती है?
5. लेकिन तू हटधर्म है, तू तौबा करने के लिए तय्यार नहीं और यूँ अपनी सज़ा में इज़ाफ़ा करता जा रहा है, वह सज़ा जो उस दिन दी जाएगी जब अल्लाह का ग़ज़ब नाज़िल होगा, जब उस की रास्त अदालत ज़ाहिर होगी।
6. अल्लाह हर एक को उस के कामों का बदला देगा।
7. कुछ लोग साबितक़दमी से नेक काम करते और जलाल, इज़्ज़त और बक़ा के तालिब रहते हैं। उन्हें अल्लाह अबदी ज़िन्दगी अता करेगा।
8. लेकिन कुछ लोग ख़ुदग़रज़ हैं और सच्चाई की नहीं बल्कि नारास्ती की पैरवी करते हैं। उन पर अल्लाह का ग़ज़ब और क़हर नाज़िल होगा।
9. मुसीबत और परेशानी हर उस इन्सान पर आएगी जो बुराई करता है, पहले यहूदी पर, फिर यूनानी पर।
10. लेकिन जलाल, इज़्ज़त और सलामती हर उस इन्सान को हासिल होगी जो नेकी करता है, पहले यहूदी को, फिर यूनानी को।
11. क्यूँकि अल्लाह किसी का भी तरफ़दार नहीं।
12. ग़ैरयहूदियों के पास मूसवी शरीअत नहीं है, इस लिए वह शरीअत के बग़ैर ही गुनाह करके हलाक हो जाते हैं। यहूदियों के पास शरीअत है, लेकिन वह भी नहीं बचेंगे। क्यूँकि जब वह गुनाह करते हैं तो शरीअत ही उन्हें मुज्रिम ठहराती है।
13. क्यूँकि अल्लाह के नज़्दीक यह काफ़ी नहीं कि हम शरीअत की बातें सुनें बल्कि वह हमें उस वक़्त ही रास्तबाज़ क़रार देता है जब शरीअत पर अमल भी करते हैं।
14. और गो ग़ैरयहूदियों के पास शरीअत नहीं होती लेकिन जब भी वह फ़ित्रती तौर पर वह कुछ करते हैं जो शरीअत फ़रमाती है तो ज़ाहिर करते हैं कि गो हमारे पास शरीअत नहीं तो भी हम अपने आप के लिए ख़ुद शरीअत हैं।
15. इस में वह साबित करते हैं कि शरीअत के तक़ाज़े उन के दिल पर लिखे हुए हैं। उन का ज़मीर भी इस की गवाही देता है, क्यूँकि उन के ख़यालात कभी एक दूसरे की मज़म्मत और कभी एक दूसरे का दिफ़ा भी करते हैं।
16. ग़रज़, मेरी ख़ुशख़बरी के मुताबिक़ हर एक को उस दिन अपना अज्र मिलेगा जब अल्लाह ईसा मसीह की मारिफ़त इन्सानों की पोशीदा बातों की अदालत करेगा।
17. अच्छा, तू अपने आप को यहूदी कहता है। तू शरीअत पर इन्हिसार करता और अल्लाह के साथ अपने ताल्लुक़ पर फ़ख़र करता है।
18. तू उस की मर्ज़ी को जानता है और शरीअत की तालीम पाने के बाइस सहीह राह की पहचान रखता है।
19. तुझे पूरा यक़ीन है, ‘मैं अंधों का क़ाइद, तारीकी में बसने वालों की रौशनी,
20. बेसमझों का मुअल्लिम और बच्चों का उस्ताद हूँ।’ एक लिहाज़ से यह दुरुस्त भी है, क्यूँकि शरीअत की सूरत में तेरे पास इल्म-ओ-इर्फ़ान और सच्चाई मौजूद है।
21. अब बता, तू जो औरों को सिखाता है अपने आप को क्यूँ नहीं सिखाता? तू जो चोरी न करने की मुनादी करता है, ख़ुद चोरी क्यूँ करता है?
22. तू जो औरों को ज़िना करने से मना करता है, ख़ुद ज़िना क्यूँ करता है? तू जो बुतों से घिन खाता है, ख़ुद मन्दिरों को क्यूँ लूटता है?
23. तू जो शरीअत पर फ़ख़र करता है, क्यूँ इस की ख़िलाफ़वरज़ी करके अल्लाह की बेइज़्ज़ती करता है?
24. यह वही बात है जो कलाम-ए-मुक़द्दस में लिखी है, “तुम्हारे सबब से ग़ैरयहूदियों में अल्लाह के नाम पर कुफ़्र बका जाता है।”
25. ख़तने का फ़ाइदा तो उस वक़्त होता है जब तू शरीअत पर अमल करता है। लेकिन अगर तू उस की हुक्मअदूली करता है तो तू नामख़्तून जैसा है।
26. इस के बरअक्स अगर नामख़्तून ग़ैरयहूदी शरीअत के तक़ाज़ों को पूरा करता है तो क्या अल्लाह उसे मख़्तून यहूदी के बराबर नहीं ठहराएगा?
27. चुनाँचे जो नामख़्तून ग़ैरयहूदी शरीअत पर अमल करते हैं वह आप यहूदियों को मुज्रिम ठहराएँगे जिन का ख़तना हुआ है और जिन के पास शरीअत है, क्यूँकि आप शरीअत पर अमल नहीं करते।
28. आप इस बिना पर हक़ीक़ी यहूदी नहीं हैं कि आप के वालिदैन यहूदी थे या आप के बदन का ख़तना ज़ाहिरी तौर पर हुआ है।
29. बल्कि हक़ीक़ी यहूदी वह है जो बातिन में यहूदी है। और हक़ीक़ी ख़तना उस वक़्त होता है जब दिल का ख़तना हुआ है। ऐसा ख़तना शरीअत से नहीं बल्कि रूह-उल-क़ुद्स के वसीले से किया जाता है। और ऐसे यहूदी को इन्सान की तरफ़ से नहीं बल्कि अल्लाह की तरफ़ से तारीफ़ मिलती है।

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