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1. | मर्द-ए-ख़ुदा मूसा की दुआ। ऐ रब्ब, पुश्त-दर-पुश्त तू हमारी पनाहगाह रहा है। |
2. | इस से पहले कि पहाड़ पैदा हुए और तू ज़मीन और दुनिया को वुजूद में लाया तू ही था। ऐ अल्लाह, तू अज़ल से अबद तक है। |
3. | तू इन्सान को दुबारा ख़ाक होने देता है। तू फ़रमाता है, ‘ऐ आदमज़ादो, दुबारा ख़ाक में मिल जाओ!’ |
4. | क्यूँकि तेरी नज़र में हज़ार साल कल के गुज़रे हुए दिन के बराबर या रात के एक पहर की मानिन्द हैं। |
5. | तू लोगों को सैलाब की तरह बहा ले जाता है, वह नींद और उस घास की मानिन्द हैं जो सुब्ह को फूट निकलती है। |
6. | वह सुब्ह को फूट निकलती और उगती है, लेकिन शाम को मुरझा कर सूख जाती है। |
7. | क्यूँकि हम तेरे ग़ज़ब से फ़ना हो जाते और तेरे क़हर से हवासबाख़्ता हो जाते हैं। |
8. | तू ने हमारी ख़ताओं को अपने सामने रखा, हमारे पोशीदा गुनाहों को अपने चिहरे के नूर में लाया है। |
9. | चुनाँचे हमारे तमाम दिन तेरे क़हर के तहत घटते घटते ख़त्म हो जाते हैं। जब हम अपने सालों के इख़तिताम पर पहुँचते हैं तो ज़िन्दगी सर्द आह के बराबर ही होती है। |
10. | हमारी उम्र 70 साल या अगर ज़ियादा ताक़त हो तो 80 साल तक पहुँचती है, और जो दिन फ़ख़र का बाइस थे वह भी तक्लीफ़दिह और बेकार हैं। जल्द ही वह गुज़र जाते हैं, और हम परिन्दों की तरह उड़ कर चले जाते हैं। |
11. | कौन तेरे ग़ज़ब की पूरी शिद्दत जानता है? कौन समझता है कि तेरा क़हर हमारी ख़ुदातरसी की कमी के मुताबिक़ ही है? |
12. | चुनाँचे हमें हमारे दिनों का सहीह हिसाब करना सिखा ताकि हमारे दिल दानिशमन्द हो जाएँ। |
13. | ऐ रब्ब, दुबारा हमारी तरफ़ रुजू फ़रमा! तू कब तक दूर रहेगा? अपने ख़ादिमों पर तरस खा! |
14. | सुब्ह को हमें अपनी शफ़्क़त से सेर कर! तब हम ज़िन्दगी भर बाग़ बाग़ होंगे और ख़ुशी मनाएँगे। |
15. | हमें उतने ही दिन ख़ुशी दिला जितने तू ने हमें पस्त किया है, उतने ही साल जितने हमें दुख सहना पड़ा है। |
16. | अपने ख़ादिमों पर अपने काम और उन की औलाद पर अपनी अज़्मत ज़ाहिर कर। |
17. | रब्ब हमारा ख़ुदा हमें अपनी मेहरबानी दिखाए। हमारे हाथों का काम मज़्बूत कर, हाँ हमारे हाथों का काम मज़्बूत कर! |
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