Matthew (20/28)  

1. क्यूँकि आस्मान की बादशाही उस ज़मीन्दार से मुताबिक़त रखती है जो एक दिन सुब्ह-सवेरे निकला ताकि अपने अंगूर के बाग़ के लिए मज़्दूर ढूँडे।
2. वह उन से दिहाड़ी के लिए चाँदी का एक सिक्का देने पर मुत्तफ़िक़ हुआ और उन्हें अपने अंगूर के बाग़ में भेज दिया।
3. नौ बजे वह दुबारा निकला तो देखा कि कुछ लोग अभी तक मंडी में फ़ारिग़ बैठे हैं।
4. उस ने उन से कहा, ‘तुम भी जा कर मेरे अंगूर के बाग़ में काम करो। मैं तुम्हें मुनासिब उजरत दूँगा।’
5. चुनाँचे वह काम करने के लिए चले गए। बारह बजे और तीन बजे दोपहर के वक़्त भी वह निकला और इस तरह के फ़ारिग़ मज़्दूरों को काम पर लगाया।
6. फिर शाम के पाँच बज गए। वह निकला तो देखा कि अभी तक कुछ लोग फ़ारिग़ बैठे हैं। उस ने उन से पूछा, ‘तुम क्यूँ पूरा दिन फ़ारिग़ बैठे रहे हो?’
7. उन्हों ने जवाब दिया, ‘इस लिए कि किसी ने हमें काम पर नहीं लगाया।’ उस ने उन से कहा, ‘तुम भी जा कर मेरे अंगूर के बाग़ में काम करो।’
8. दिन ढल गया तो ज़मीन्दार ने अपने अफ़्सर को बताया, ‘मज़्दूरों को बुला कर उन्हें मज़्दूरी दे दे, आख़िर में आने वालों से शुरू करके पहले आने वालों तक।’
9. जो मज़्दूर पाँच बजे आए थे उन्हें चाँदी का एक एक सिक्का मिल गया।
10. इस लिए जब वह आए जो पहले काम पर लगाए गए थे तो उन्हों ने ज़ियादा मिलने की तवक़्क़ो की। लेकिन उन्हें भी चाँदी का एक एक सिक्का मिला।
11. इस पर वह ज़मीन्दार के ख़िलाफ़ बुड़बुड़ाने लगे,
12. ‘यह आदमी जिन्हें आख़िर में लगाया गया उन्हों ने सिर्फ़ एक घंटा काम किया। तो भी आप ने उन्हें हमारे बराबर की मज़्दूरी दी हालाँकि हमें दिन का पूरा बोझ और धूप की शिद्दत बर्दाश्त करनी पड़ी।’
13. लेकिन ज़मीन्दार ने उन में से एक से बात की, ‘यार, मैं ने ग़लत काम नहीं किया। क्या तू चाँदी के एक सिक्के के लिए मज़्दूरी करने पर मुत्तफ़िक़ न हुआ था?
14. अपने पैसे ले कर चला जा। मैं आख़िर में काम पर लगने वालों को उतना ही देना चाहता हूँ जितना तुझे।
15. क्या मेरा हक़ नहीं कि मैं जैसा चाहूँ अपने पैसे ख़र्च करूँ? या क्या तू इस लिए हसद करता है कि मैं फ़य्याज़दिल हूँ?’
16. यूँ अव्वल आख़िर में आएँगे और जो आख़िरी हैं वह अव्वल हो जाएँगे।”
17. अब जब ईसा यरूशलम की तरफ़ बढ़ रहा था तो बारह शागिर्दों को एक तरफ़ ले जा कर उस ने उन से कहा,
18. “हम यरूशलम की तरफ़ बढ़ रहे हैं। वहाँ इब्न-ए-आदम को राहनुमा इमामों और शरीअत के उलमा के हवाले कर दिया जाएगा। वह उस पर सज़ा-ए-मौत का फ़त्वा दे कर
19. उसे ग़ैरयहूदियों के हवाले कर देंगे ताकि वह उस का मज़ाक़ उड़ाएँ, उस को कोड़े मारें और उसे मस्लूब करें। लेकिन तीसरे दिन वह जी उठेगा।”
20. फिर ज़ब्दी के बेटों याक़ूब और यूहन्ना की माँ अपने बेटों को साथ ले कर ईसा के पास आई और सिज्दा करके कहा, “आप से एक गुज़ारिश है।”
21. ईसा ने पूछा, “तू क्या चाहती है?” उस ने जवाब दिया, “अपनी बादशाही में मेरे इन बेटों में से एक को अपने दाएँ हाथ बैठने दें और दूसरे को बाएँ हाथ।”
22. ईसा ने कहा, “तुम को नहीं मालूम कि क्या माँग रहे हो। क्या तुम वह पियाला पी सकते हो जो मैं पीने को हूँ?” “जी, हम पी सकते हैं,” उन्हों ने जवाब दिया।
23. फिर ईसा ने उन से कहा, “तुम मेरा पियाला तो ज़रूर पियोगे, लेकिन यह फ़ैसला करना मेरा काम नहीं कि कौन मेरे दाएँ हाथ बैठेगा और कौन बाएँ हाथ। मेरे बाप ने यह मक़ाम उन ही के लिए तय्यार किया है जिन को उस ने ख़ुद मुक़र्रर किया है।”
24. जब बाक़ी दस शागिर्दों ने यह सुना तो उन्हें याक़ूब और यूहन्ना पर ग़ुस्सा आया।
25. इस पर ईसा ने उन सब को बुला कर कहा, “तुम जानते हो कि क़ौमों के हुक्मरान अपनी रआया पर रोब डालते हैं और उन के बड़े अफ़्सर उन पर अपने इख़तियार का ग़लत इस्तेमाल करते हैं।
26. लेकिन तुम्हारे दर्मियान ऐसा नहीं है। जो तुम में बड़ा होना चाहे वह तुम्हारा ख़ादिम बने
27. और जो तुम में अव्वल होना चाहे वह तुम्हारा ग़ुलाम बने।
28. क्यूँकि इब्न-ए-आदम भी इस लिए नहीं आया कि ख़िदमत ले बल्कि इस लिए कि ख़िदमत करे और अपनी जान फ़िद्या के तौर पर दे कर बहुतों को छुड़ाए।”
29. जब वह यरीहू शहर से निकलने लगे तो एक बड़ा हुजूम उन के पीछे चल रहा था।
30. दो अंधे रास्ते के किनारे बैठे थे। जब उन्हों ने सुना कि ईसा गुज़र रहा है तो वह चिल्लाने लगे, “ख़ुदावन्द, इब्न-ए-दाऊद, हम पर रहम करें।”
31. हुजूम ने उन्हें डाँट कर कहा, “ख़ामोश!” लेकिन वह और भी ऊँची आवाज़ से पुकारते रहे, “ख़ुदावन्द, इब्न-ए-दाऊद, हम पर रहम करें।”
32. ईसा रुक गया। उस ने उन्हें अपने पास बुलाया और पूछा, “तुम क्या चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए करूँ?”
33. उन्हों ने जवाब दिया, “ख़ुदावन्द, यह कि हम देख सकें।”
34. ईसा को उन पर तरस आया। उस ने उन की आँखों को छुआ तो वह फ़ौरन बहाल हो गईं। फिर वह उस के पीछे चलने लगे।

  Matthew (20/28)