Luke (4/24)  

1. ईसा दरया-ए-यर्दन से वापस आया। वह रूह-उल-क़ुद्स से मामूर था जिस ने उसे रेगिस्तान में ला कर उस की राहनुमाई की।
2. वहाँ उसे चालीस दिन तक इब्लीस से आज़्माया गया। इस पूरे अर्से में उस ने कुछ न खाया। आख़िरकार उसे भूक लगी।
3. फिर इब्लीस ने उस से कहा, “अगर तू अल्लाह का फ़र्ज़न्द है तो इस पत्थर को हुक्म दे कि रोटी बन जाए।”
4. लेकिन ईसा ने इन्कार करके कहा, “हरगिज़ नहीं, क्यूँकि कलाम-ए-मुक़द्दस में लिखा है कि इन्सान की ज़िन्दगी सिर्फ़ रोटी पर मुन्हसिर नहीं होती।”
5. इस पर इब्लीस ने उसे किसी बुलन्द जगह पर ले जा कर एक लम्हे में दुनिया के तमाम ममालिक दिखाए।
6. वह बोला, “मैं तुझे इन ममालिक की शान-ओ-शौकत और इन पर तमाम इख़तियार दूँगा। क्यूँकि यह मेरे सपुर्द किए गए हैं और जिसे चाहूँ दे सकता हूँ।
7. लिहाज़ा यह सब कुछ तेरा ही होगा। शर्त यह है कि तू मुझे सिज्दा करे।”
8. लेकिन ईसा ने जवाब दिया, “हरगिज़ नहीं, क्यूँकि कलाम-ए-मुक़द्दस में यूँ लिखा है, ‘रब्ब अपने अल्लाह को सिज्दा कर और सिर्फ़ उसी की इबादत कर’।”
9. फिर इब्लीस ने उसे यरूशलम ले जा कर बैत-उल-मुक़द्दस की सब से ऊँची जगह पर खड़ा किया और कहा, “अगर तू अल्लाह का फ़र्ज़न्द है तो यहाँ से छलाँग लगा दे।
10. क्यूँकि कलाम-ए-मुक़द्दस में लिखा है, ‘वह अपने फ़रिश्तों को तेरी हिफ़ाज़त करने का हुक्म देगा,
11. और वह तुझे अपने हाथों पर उठा लेंगे ताकि तेरे पाँओ को पत्थर से ठेस न लगे’।”
12. लेकिन ईसा ने तीसरी बार इन्कार किया और कहा, “कलाम-ए-मुक़द्दस यह भी फ़रमाता है, ‘रब्ब अपने अल्लाह को न आज़्माना’।”
13. इन आज़्माइशों के बाद इब्लीस ने ईसा को कुछ देर के लिए छोड़ दिया।
14. फिर ईसा वापस गलील में आया। उस में रूह-उल-क़ुद्स की क़ुव्वत थी, और उस की शुहरत उस पूरे इलाक़े में फैल गई।
15. वहाँ वह उन के इबादतख़ानों में तालीम देने लगा, और सब ने उस की तारीफ़ की।
16. एक दिन वह नासरत पहुँचा जहाँ वह पर्वान चढ़ा था। वहाँ भी वह मामूल के मुताबिक़ सबत के दिन मक़ामी इबादतख़ाने में जा कर कलाम-ए-मुक़द्दस में से पढ़ने के लिए खड़ा हो गया।
17. उसे यसायाह नबी की किताब दी गई तो उस ने तूमार को खोल कर यह हवाला ढूँड निकाला,
18. “रब्ब का रूह मुझ पर है, क्यूँकि उस ने मुझे तेल से मसह करके ग़रीबों को ख़ुशख़बरी सुनाने का इख़तियार दिया है। उस ने मुझे यह एलान करने के लिए भेजा है कि क़ैदियों को रिहाई मिलेगी और अंधे देखेंगे। उस ने मुझे भेजा है कि मैं कुचले हुओं को आज़ाद कराऊँ
19. और रब्ब की तरफ़ से बहाली के साल का एलान करूँ।”
20. यह कह कर ईसा ने तूमार को लपेट कर इबादतख़ाने के मुलाज़िम को वापस कर दिया और बैठ गया। सारी जमाअत की आँखें उस पर लगी थीं।
21. फिर वह बोल उठा, “आज अल्लाह का यह फ़रमान तुम्हारे सुनते ही पूरा हो गया है।”
22. सब ईसा के हक़ में बातें करने लगे। वह उन पुरफ़ज़्ल बातों पर हैरतज़दा थे जो उस के मुँह से निकलीं, और वह कहने लगे, “क्या यह यूसुफ़ का बेटा नहीं है?”
23. उस ने उन से कहा, “बेशक तुम मुझे यह कहावत बताओगे, ‘ऐ डाक्टर, पहले अपने आप का इलाज कर।’ यानी सुनने में आया है कि आप ने कफ़र्नहूम में मोजिज़े किए हैं। अब ऐसे मोजिज़े यहाँ अपने वतनी शहर में भी दिखाएँ।
24. लेकिन मैं तुम को सच्च बताता हूँ कि कोई भी नबी अपने वतनी शहर में मक़्बूल नहीं होता।
25. यह हक़ीक़त है कि इल्यास नबी के ज़माने में इस्राईल में बहुत सी ज़रूरतमन्द बेवाएँ थीं, उस वक़्त जब साढे तीन साल तक बारिश न हुई और पूरे मुल्क में सख़्त काल पड़ा।
26. इस के बावुजूद इल्यास को उन में से किसी के पास नहीं भेजा गया बल्कि एक ग़ैरयहूदी बेवा के पास जो सैदा के शहर सारपत में रहती थी।
27. इसी तरह इलीशा नबी के ज़माने में इस्राईल में कोढ़ के बहुत से मरीज़ थे। लेकिन उन में से किसी को शिफ़ा न मिली बल्कि सिर्फ़ नामान को जो मुल्क-ए-शाम का शहरी था।”
28. जब इबादतख़ाने में जमा लोगों ने यह बातें सुनीं तो वह बड़े तैश में आ गए।
29. वह उठे और उसे शहर से निकाल कर उस पहाड़ी के किनारे ले गए जिस पर शहर को तामीर किया गया था। वहाँ से वह उसे नीचे गिराना चाहते थे,
30. लेकिन ईसा उन में से गुज़र कर वहाँ से चला गया।
31. इस के बाद वह गलील के शहर कफ़र्नहूम को गया और सबत के दिन इबादतख़ाने में लोगों को सिखाने लगा।
32. वह उस की तालीम सुन कर हक्का-बक्का रह गए, क्यूँकि वह इख़तियार के साथ तालीम देता था।
33. इबादतख़ाने में एक आदमी था जो किसी नापाक रूह के क़ब्ज़े में था। अब वह चीख़ चीख़ कर बोलने लगा,
34. “अरे नासरत के ईसा, हमारा आप के साथ क्या वास्ता है? क्या आप हमें हलाक करने आए हैं? मैं तो जानता हूँ कि आप कौन हैं, आप अल्लाह के क़ुद्दूस हैं।”
35. ईसा ने उसे डाँट कर कहा, “ख़ामोश! आदमी में से निकल जा!” इस पर बदरुह आदमी को जमाअत के बीच में फ़र्श पर पटक कर उस में से निकल गई। लेकिन वह आदमी ज़ख़्मी न हुआ।
36. तमाम लोग घबरा गए और एक दूसरे से कहने लगे, “उस आदमी के अल्फ़ाज़ में क्या इख़तियार और क़ुव्वत है कि बदरुहें उस का हुक्म मानती और उस के कहने पर निकल जाती हैं?”
37. और ईसा के बारे में चर्चा उस पूरे इलाक़े में फैल गया।
38. फिर ईसा इबादतख़ाने को छोड़ कर शमाऊन के घर गया। वहाँ शमाऊन की सास शदीद बुख़ार में मुब्तला थी। उन्हों ने ईसा से गुज़ारिश की कि वह उस की मदद करे।
39. उस ने उस के सिरहाने खड़े हो कर बुख़ार को डाँटा तो वह उतर गया और शमाऊन की सास उसी वक़्त उठ कर उन की ख़िदमत करने लगी।
40. जब दिन ढल गया तो सब मक़ामी लोग अपने मरीज़ों को ईसा के पास लाए। ख़्वाह उन की बीमारियाँ कुछ भी क्यूँ न थीं, उस ने हर एक पर अपने हाथ रख कर उसे शिफ़ा दी।
41. बहुतों में बदरुहें भी थीं जिन्हों ने निकलते वक़्त चिल्ला कर कहा, “तू अल्लाह का फ़र्ज़न्द है।” लेकिन चूँकि वह जानती थीं कि वह मसीह है इस लिए उस ने उन्हें डाँट कर बोलने न दिया।
42. जब अगला दिन चढ़ा तो ईसा शहर से निकल कर किसी वीरान जगह चला गया। लेकिन हुजूम उसे ढूँडते ढूँडते आख़िरकार उस के पास पहुँचा। लोग उसे अपने पास से जाने नहीं देना चाहते थे।
43. लेकिन उस ने उन से कहा, “लाज़िम है कि मैं दूसरे शहरों में भी जा कर अल्लाह की बादशाही की ख़ुशख़बरी सुनाऊँ, क्यूँकि मुझे इसी मक़्सद के लिए भेजा गया है।”
44. चुनाँचे वह यहूदिया के इबादतख़ानों में मुनादी करता रहा।

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