← Job (29/42) → |
1. | अय्यूब ने अपनी बात जारी रख कर कहा, |
2. | “काश मैं दुबारा माज़ी के वह दिन गुज़ार सकूँ जब अल्लाह मेरी देख-भाल करता था, |
3. | जब उस की शमा मेरे सर के ऊपर चमकती रही और मैं उस की रौशनी की मदद से अंधेरे में चलता था। |
4. | उस वक़्त मेरी जवानी उरूज पर थी और मेरा ख़ैमा अल्लाह के साय में रहता था। |
5. | क़ादिर-ए-मुतलक़ मेरे साथ था, और मैं अपने बेटों से घिरा रहता था। |
6. | कस्रत के बाइस मेरे क़दम दही से धोए रहते और चटान से तेल की नदियाँ फूट कर निकलती थीं। |
7. | जब कभी मैं शहर के दरवाज़े से निकल कर चौक में अपनी कुर्सी पर बैठ जाता |
8. | तो जवान आदमी मुझे देख कर पीछे हट कर छुप जाते, बुज़ुर्ग उठ कर खड़े रहते, |
9. | रईस बोलने से बाज़ आ कर मुँह पर हाथ रखते, |
10. | शुरफ़ा की आवाज़ दब जाती और उन की ज़बान तालू से चिपक जाती थी। |
11. | जिस कान ने मेरी बातें सुनीं उस ने मुझे मुबारक कहा, जिस आँख ने मुझे देखा उस ने मेरे हक़ में गवाही दी। |
12. | क्यूँकि जो मुसीबत में आ कर आवाज़ देता उसे मैं बचाता, बेसहारा यतीम को छुटकारा देता था। |
13. | तबाह होने वाले मुझे बर्कत देते थे। मेरे बाइस बेवाओं के दिलों से ख़ुशी के नारे उभर आते थे। |
14. | मैं रास्तबाज़ी से मुलब्बस और रास्तबाज़ी मुझ से मुलब्बस रहती थी, इन्साफ़ मेरा चोग़ा और पगड़ी था। |
15. | अंधों के लिए मैं आँखें, लंगड़ों के लिए पाँओ बना रहता था। |
16. | मैं ग़रीबों का बाप था, और जब कभी अजनबी को मुक़द्दमा लड़ना पड़ा तो मैं ग़ौर से उस के मुआमले का मुआइना करता था ताकि उस का हक़ मारा न जाए। |
17. | मैं ने बेदीन का जबड़ा तोड़ कर उस के दाँतों में से शिकार छुड़ाया। |
18. | उस वक़्त मेरा ख़याल था, ‘मैं अपने ही घर में वफ़ात पाऊँगा, सीमुर्ग़ की तरह अपनी ज़िन्दगी के दिनों में इज़ाफ़ा करूँगा। |
19. | मेरी जड़ें पानी तक फैली और मेरी शाख़ें ओस से तर रहेंगी। |
20. | मेरी इज़्ज़त हर वक़्त ताज़ा रहेगी, और मेरे हाथ की कमान को नई तक़वियत मिलती रहेगी।’ |
21. | लोग मेरी सुन कर ख़ामोशी से मेरे मश्वरों के इन्तिज़ार में रहते थे। |
22. | मेरे बात करने पर वह जवाब में कुछ न कहते बल्कि मेरे अल्फ़ाज़ हल्की सी बूँदा-बाँदी की तरह उन पर टपकते रहते। |
23. | जिस तरह इन्सान शिद्दत से बारिश के इन्तिज़ार में रहता है उसी तरह वह मेरे इन्तिज़ार में रहते थे। वह मुँह पसार कर बहार की बारिश की तरह मेरे अल्फ़ाज़ को जज़ब कर लेते थे। |
24. | जब मैं उन से बात करते वक़्त मुस्कुराता तो उन्हें यक़ीन नहीं आता था, मेरी उन पर मेहरबानी उन के नज़्दीक निहायत क़ीमती थी। |
25. | मैं उन की राह उन के लिए चुन कर उन की क़ियादत करता, उन के दर्मियान यूँ बसता था जिस तरह बादशाह अपने दस्तों के दर्मियान। मैं उस की मानिन्द था जो मातम करने वालों को तसल्ली देता है। |
← Job (29/42) → |