Job (13/42)  

1. यह सब कुछ मैं ने अपनी आँखों से देखा, अपने कानों से सुन कर समझ लिया है।
2. इल्म के लिहाज़ से मैं तुम्हारे बराबर हूँ। इस नाते से मैं तुम से कम नहीं हूँ।
3. लेकिन मैं क़ादिर-ए-मुतलक़ से ही बात करना चाहता हूँ, अल्लाह के साथ ही मुबाहसा करने की आर्ज़ू रखता हूँ।
4. जहाँ तक तुम्हारा ताल्लुक़ है, तुम सब फ़रेबदिह लेप लगाने वाले और बेकार डाक्टर हो।
5. काश तुम सरासर ख़ामोश रहते! ऐसा करने से तुम्हारी हिक्मत कहीं ज़ियादा ज़ाहिर होती।
6. मुबाहिसे में ज़रा मेरा मौक़िफ़ सुनो, अदालत में मेरे बयानात पर ग़ौर करो!
7. क्या तुम अल्लाह की ख़ातिर कजरौ बातें पेश करते हो, क्या उसी की ख़ातिर झूट बोलते हो?
8. क्या तुम उस की जानिबदारी करना चाहते हो, अल्लाह के हक़ में लड़ना चाहते हो?
9. सोच लो, अगर वह तुम्हारी जाँच करे तो क्या तुम्हारी बात बनेगी? क्या तुम उसे यूँ धोका दे सकते हो जिस तरह इन्सान को धोका दिया जाता है?
10. अगर तुम ख़ुफ़िया तौर पर भी जानिबदारी दिखाओ तो वह तुम्हें ज़रूर सख़्त सज़ा देगा।
11. क्या उस का रोब तुम्हें ख़ौफ़ज़दा नहीं करेगा? क्या तुम उस से सख़्त दह्शत नहीं खाओगे?
12. फिर जिन कहावतों की याद तुम दिलाते रहते हो वह राख की अम्साल साबित होंगी, पता चलेगा कि तुम्हारी बातें मिट्टी के अल्फ़ाज़ हैं।
13. ख़ामोश हो कर मुझ से बाज़ आओ! जो कुछ भी मेरे साथ हो जाए, मैं बात करना चाहता हूँ।
14. मैं अपने आप को ख़त्रे में डालने के लिए तय्यार हूँ, मैं अपनी जान पर खेलूँगा।
15. शायद वह मुझे मार डाले। कोई बात नहीं, क्यूँकि मेरी उम्मीद जाती रही है। जो कुछ भी हो में उसी के सामने अपनी राहों का दिफ़ा करूँगा।
16. और इस में मैं पनाह लेता हूँ कि बेदीन उस के हुज़ूर आने की जुरअत नहीं करता।
17. ध्यान से मेरे अल्फ़ाज़ सुनो, अपने कान मेरे बयानात पर धरो।
18. तुम्हें पता चलेगा कि मैं ने एहतियात और तर्तीब से अपना मुआमला तय्यार किया है। मुझे साफ़ मालूम है कि मैं हक़ पर हूँ!
19. अगर कोई मुझे मुज्रिम साबित कर सके तो मैं चुप हो जाऊँगा, दम छोड़ने तक ख़ामोश रहूँगा।
20. ऐ अल्लाह, मेरी सिर्फ़ दो दरख़्वास्तें मन्ज़ूर कर ताकि मुझे तुझ से छुप जाने की ज़रूरत न हो।
21. पहले, अपना हाथ मुझ से दूर कर ताकि तेरा ख़ौफ़ मुझे दह्शतज़दा न करे।
22. दूसरे, इस के बाद मुझे बुला ताकि मैं जवाब दूँ, या मुझे पहले बोलने दे और तू ही इस का जवाब दे।
23. मुझ से कितने गुनाह और ग़लतियाँ हुई हैं? मुझ पर मेरा जुर्म और मेरा गुनाह ज़ाहिर कर!
24. तू अपना चिहरा मुझ से छुपाए क्यूँ रखता है? तू मुझे क्यूँ अपना दुश्मन समझता है?
25. क्या तू हवा के झोंकों के उड़ाए हुए पत्ते को दह्शत खिलाना चाहता, ख़ुश्क भूसे का ताक़्क़ुब करना चाहता है?
26. यह तेरा ही फ़ैसला है कि मैं तल्ख़ तजरिबों से गुज़रूँ, तेरी ही मर्ज़ी है कि मैं अपनी जवानी के गुनाहों की सज़ा पाऊँ।
27. तू मेरे पाँओ को काठ में ठोंक कर मेरी तमाम राहों की पहरादारी करता है। तू मेरे हर एक नक़्श-ए-क़दम पर ध्यान देता है,
28. गो मैं मै की घिसी फटी मश्क और कीड़ों का ख़राब किया हुआ लिबास हूँ।

  Job (13/42)