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| 1. | फिर ज़ूफ़र नामाती ने जवाब दे कर कहा, |
| 2. | “क्या इन तमाम बातों का जवाब नहीं देना चाहिए? क्या यह आदमी अपनी ख़ाली बातों की बिना पर ही रास्तबाज़ ठहरेगा? |
| 3. | क्या तेरी बेमानी बातें लोगों के मुँह यूँ बन्द करेंगी कि तू आज़ादी से लान-तान करता जाए और कोई तुझे शर्मिन्दा न कर सके? |
| 4. | अल्लाह से तू कहता है, ‘मेरी तालीम पाक है, और तेरी नज़र में मैं पाक-साफ़ हूँ।’ |
| 5. | काश अल्लाह ख़ुद तेरे साथ हमकलाम हो, वह अपने होंटों को खोल कर तुझ से बात करे! |
| 6. | काश वह तेरे लिए हिक्मत के भेद खोले, क्यूँकि वह इन्सान की समझ के नज़्दीक मोजिज़े से हैं। तब तू जान लेता कि अल्लाह तेरे गुनाह का काफ़ी हिस्सा दरगुज़र कर रहा है। |
| 7. | क्या तू अल्लाह का राज़ खोल सकता है? क्या तू क़ादिर-ए-मुतलक़ के कामिल इल्म तक पहुँच सकता है? |
| 8. | वह तो आस्मान से बुलन्द है, चुनाँचे तू क्या कर सकता है? वह पाताल से गहरा है, चुनाँचे तू क्या जान सकता है? |
| 9. | उस की लम्बाई ज़मीन से बड़ी और चौड़ाई समुन्दर से ज़ियादा है। |
| 10. | अगर वह कहीं से गुज़र कर किसी को गिरिफ़्तार करे या अदालत में उस का हिसाब करे तो कौन उसे रोकेगा? |
| 11. | क्यूँकि वह फ़रेबदिह आदमियों को जान लेता है, जब भी उसे बुराई नज़र आए तो वह उस पर ख़ूब ध्यान देता है। |
| 12. | अक़ल से ख़ाली आदमी किस तरह समझ पा सकता है? यह उतना ही नामुम्किन है जितना यह कि जंगली गधे से इन्सान पैदा हो। |
| 13. | ऐ अय्यूब, अपना दिल पूरे ध्यान से अल्लाह की तरफ़ माइल कर और अपने हाथ उस की तरफ़ उठा! |
| 14. | अगर तेरे हाथ गुनाह में मुलव्वस हों तो उसे दूर कर और अपने ख़ैमे में बुराई बसने न दे! |
| 15. | तब तू बेइल्ज़ाम हालत में अपना चिहरा उठा सकेगा, तू मज़्बूती से खड़ा रहेगा और डरेगा नहीं। |
| 16. | तू अपना दुख-दर्द भूल जाएगा, और वह सिर्फ़ गुज़रे सैलाब की तरह याद रहेगा। |
| 17. | तेरी ज़िन्दगी दोपहर की तरह चमकदार, तेरी तारीकी सुब्ह की मानिन्द रौशन हो जाएगी। |
| 18. | चूँकि उम्मीद होगी इस लिए तू मह्फ़ूज़ होगा और सलामती से लेट जाएगा। |
| 19. | तू आराम करेगा, और कोई तुझे दह्शतज़दा नहीं करेगा बल्कि बहुत लोग तेरी नज़र-ए-इनायत हासिल करने की कोशिश करेंगे। |
| 20. | लेकिन बेदीनों की आँखें नाकाम हो जाएँगी, और वह बच नहीं सकेंगे। उन की उम्मीद मायूसकुन होगी ।” |
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