Hebrews (7/13)  

1. यह मलिक-ए-सिद्क़, सालिम का बादशाह और अल्लाह तआला का इमाम था। जब इब्राहीम चार बादशाहों को शिकस्त देने के बाद वापस आ रहा था तो मलिक-ए-सिद्क़ उस से मिला और उसे बर्कत दी।
2. इस पर इब्राहीम ने उसे तमाम लूट के माल का दसवाँ हिस्सा दे दिया। अब मलिक-ए-सिद्क़ का मतलब “रास्तबाज़ी का बादशाह” है। दूसरे, “सालिम का बादशाह” का मतलब “सलामती का बादशाह” है।
3. न उस का बाप या माँ है, न कोई नसबनामा। उस की ज़िन्दगी का न तो आग़ाज़ है, न इख़तिताम। अल्लाह के फ़र्ज़न्द की तरह वह अबद तक इमाम रहता है।
4. ग़ौर करें कि वह कितना अज़ीम था। हमारे बापदादा इब्राहीम ने उसे लूटे हुए माल का दसवाँ हिस्सा दे दिया।
5. अब शरीअत तलब करती है कि लावी की वह औलाद जो इमाम बन जाती है क़ौम यानी अपने भाइयों से पैदावार का दसवाँ हिस्सा ले, हालाँकि उन के भाई इब्राहीम की औलाद हैं।
6. लेकिन मलिक-ए-सिद्क़ लावी की औलाद में से नहीं था। तो भी उस ने इब्राहीम से दसवाँ हिस्सा ले कर उसे बर्कत दी जिस से अल्लाह ने वादा किया था।
7. इस में कोई शक नहीं कि कमहैसियत शख़्स को उस से बर्कत मिलती है जो ज़ियादा हैसियत का हो।
8. जहाँ लावी इमामों का ताल्लुक़ है फ़ानी इन्सान दसवाँ हिस्सा लेते हैं। लेकिन मलिक-ए-सिद्क़ के मुआमले में यह हिस्सा उस को मिला जिस के बारे में गवाही दी गई है कि वह ज़िन्दा रहता है।
9. यह भी कहा जा सकता है कि जब इब्राहीम ने माल का दसवाँ हिस्सा दे दिया तो लावी ने उस के ज़रीए भी यह हिस्सा दिया, हालाँकि वह ख़ुद दसवाँ हिस्सा लेता है।
10. क्यूँकि गो लावी उस वक़्त पैदा नहीं हुआ था तो भी वह एक तरह से इब्राहीम के जिस्म में मौजूद था जब मलिक-ए-सिद्क़ उस से मिला।
11. अगर लावी की कहानत (जिस पर शरीअत मब्नी थी) कामिलियत पैदा कर सकती तो फिर एक और क़िस्म के इमाम की क्या ज़रूरत होती, उस की जो हारून जैसा न हो बल्कि मलिक-ए-सिद्क़ जैसा?
12. क्यूँकि जब भी कहानत बदल जाती है तो लाज़िम है कि शरीअत में भी तब्दीली आए।
13. और हमारा ख़ुदावन्द जिस के बारे में यह बयान किया गया है वह एक फ़र्क़ क़बीले का फ़र्द था। उस के क़बीले के किसी भी फ़र्द ने इमाम की ख़िदमत अदा नहीं की।
14. क्यूँकि साफ़ मालूम है कि ख़ुदावन्द मसीह यहूदाह क़बीले का फ़र्द था, और मूसा ने इस क़बीले को इमामों की ख़िदमत में शामिल न किया।
15. मुआमला मज़ीद साफ़ हो जाता है। एक फ़र्क़ इमाम ज़ाहिर हुआ है जो मलिक-ए-सिद्क़ जैसा है।
16. वह लावी के क़बीले का फ़र्द होने से इमाम न बना जिस तरह शरीअत तक़ाज़ा करती थी, बल्कि वह लाफ़ानी ज़िन्दगी की क़ुव्वत ही से इमाम बन गया।
17. क्यूँकि कलाम-ए-मुक़द्दस फ़रमाता है, “तू अबद तक इमाम है, ऐसा इमाम जैसा मलिक-ए-सिद्क़ था।”
18. यूँ पुराने हुक्म को मन्सूख़ कर दिया जाता है, क्यूँकि वह कमज़ोर और बेकार था
19. (मूसा की शरीअत तो किसी चीज़ को कामिल नहीं बना सकती थी) और अब एक बेहतर उम्मीद मुहय्या की गई है जिस से हम अल्लाह के क़रीब आ जाते हैं।
20. और यह नया निज़ाम अल्लाह की क़सम से क़ाइम हुआ। ऐसी कोई क़सम न खाई गई जब दूसरे इमाम बने।
21. लेकिन ईसा एक क़सम के ज़रीए इमाम बन गया जब अल्लाह ने फ़रमाया, “रब्ब ने क़सम खाई है और इस से पछताएगा नहीं, ‘तू अबद तक इमाम है’।”
22. इस क़सम की वजह से ईसा एक बेहतर अह्द की ज़मानत देता है।
23. एक और फ़र्क़, पुराने निज़ाम में बहुत से इमाम थे, क्यूँकि मौत ने हर एक की ख़िदमत मह्दूद किए रखी।
24. लेकिन चूँकि ईसा अबद तक ज़िन्दा है इस लिए उस की कहानत कभी भी ख़त्म नहीं होगी।
25. यूँ वह उन्हें अबदी नजात दे सकता है जो उस के वसीले से अल्लाह के पास आते हैं, क्यूँकि वह अबद तक ज़िन्दा है और उन की शफ़ाअत करता रहता है।
26. हमें ऐसे ही इमाम-ए-आज़म की ज़रूरत थी। हाँ, ऐसा इमाम जो मुक़द्दस, बेक़ुसूर, बेदाग़, गुनाहगारों से अलग और आस्मानों से बुलन्द हुआ है।
27. उसे दूसरे इमामों की तरह इस की ज़रूरत नहीं कि हर रोज़ क़ुर्बानियाँ पेश करे, पहले अपने लिए फिर क़ौम के लिए। बल्कि उस ने अपने आप को पेश करके अपनी इस क़ुर्बानी से उन के गुनाहों को एक बार सदा के लिए मिटा दिया।
28. मूसवी शरीअत ऐसे लोगों को इमाम-ए-आज़म मुक़र्रर करती है जो कमज़ोर हैं। लेकिन शरीअत के बाद अल्लाह की क़सम फ़र्ज़न्द को इमाम-ए-आज़म मुक़र्रर करती है, और यह फ़र्ज़न्द अबद तक कामिल है।

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