Genesis (35/50)  

1. अल्लाह ने याक़ूब से कहा, “उठ, बैत-एल जा कर वहाँ आबाद हो। वहीं अल्लाह के लिए जो तुझ पर ज़ाहिर हुआ जब तू अपने भाई एसौ से भाग रहा था क़ुर्बानगाह बना।”
2. चुनाँचे याक़ूब ने अपने घर वालों और बाक़ी सारे साथियों से कहा, “जो भी अजनबी बुत आप के पास हैं उन्हें फैंक दें। अपने आप को पाक-साफ़ करके अपने कपड़े बदलें,
3. क्यूँकि हमें यह जगह छोड़ कर बैत-एल जाना है। वहाँ मैं उस ख़ुदा के लिए क़ुर्बानगाह बनाऊँगा जिस ने मुसीबत के वक़्त मेरी दुआ सुनी। जहाँ भी मैं गया वहाँ वह मेरे साथ रहा है।”
4. यह सुन कर उन्हों ने याक़ूब को तमाम बुत दे दिए जो उन के पास थे और तमाम बालियाँ जो उन्हों ने तावीज़ के तौर पर कानों में पहन रखी थीं। उस ने सब कुछ सिकम के क़रीब बलूत के दरख़्त के नीचे ज़मीन में दबा दिया।
5. फिर वह रवाना हुए। इर्दगिर्द के शहरों पर अल्लाह की तरफ़ से इतना शदीद ख़ौफ़ छा गया कि उन्हों ने याक़ूब और उस के बेटों का ताक़्क़ुब न किया।
6. चलते चलते याक़ूब अपने लोगों समेत लूज़ पहुँच गया जो मुल्क-ए-कनआन में था। आज लूज़ का नाम बैत-एल है।
7. याक़ूब ने वहाँ क़ुर्बानगाह बना कर मक़ाम का नाम बैत-एल यानी ‘अल्लाह का घर’ रखा। क्यूँकि वहाँ अल्लाह ने अपने आप को उस पर ज़ाहिर किया था जब वह अपने भाई से फ़रार हो रहा था।
8. वहाँ रिब्क़ा की दाया दबोरा मर गई। वह बैत-एल के जुनूब में बलूत के दरख़्त के नीचे दफ़न हुई, इस लिए उस का नाम अल्लोन-बकूत यानी ‘रोने का बलूत का दरख़्त’ रखा गया।
9. अल्लाह याक़ूब पर एक दफ़ा और ज़ाहिर हुआ और उसे बर्कत दी। यह मसोपुतामिया से वापस आने पर दूसरी बार हुआ।
10. अल्लाह ने उस से कहा, “अब से तेरा नाम याक़ूब नहीं बल्कि इस्राईल होगा।” यूँ उस ने उस का नया नाम इस्राईल रखा।
11. अल्लाह ने यह भी उस से कहा, “मैं अल्लाह क़ादिर-ए-मुतलक़ हूँ। फल फूल और तादाद में बढ़ता जा। एक क़ौम नहीं बल्कि बहुत सी क़ौमें तुझ से निकलेंगी। तेरी औलाद में बादशाह भी शामिल होंगे।
12. मैं तुझे वही मुल्क दूँगा जो इब्राहीम और इस्हाक़ को दिया है। और तेरे बाद उसे तेरी औलाद को दूँगा।”
13. फिर अल्लाह वहाँ से आस्मान पर चला गया।
14. जहाँ अल्लाह याक़ूब से हमकलाम हुआ था वहाँ उस ने पत्थर का सतून खड़ा किया और उस पर मै और तेल उंडेल कर उसे मख़्सूस किया।
15. उस ने जगह का नाम बैत-एल रखा।
16. फिर याक़ूब अपने घर वालों के साथ बैत-एल को छोड़ कर इफ़्राता की तरफ़ चल पड़ा। राख़िल उम्मीद से थी, और रास्ते में बच्चे की पैदाइश का वक़्त आ गया। बच्चा बड़ी मुश्किल से पैदा हुआ।
17. जब दर्द-ए-ज़ह उरूज को पहुँच गया तो दाई ने उस से कहा, “मत डरो, क्यूँकि एक और बेटा है।”
18. लेकिन वह दम तोड़ने वाली थी, और मरते मरते उस ने उस का नाम बिन-ऊनी यानी ‘मेरी मुसीबत का बेटा’ रखा। लेकिन उस के बाप ने उस का नाम बिन्यमीन यानी ‘दहने हाथ या ख़ुशक़िसमती का बेटा’ रखा।
19. राख़िल फ़ौत हुई, और वह इफ़्राता के रास्ते में दफ़न हुई। आजकल इफ़्राता को बैत-लहम कहा जाता है।
20. याक़ूब ने उस की क़ब्र पर पत्थर का सतून खड़ा किया। वह आज तक राख़िल की क़ब्र की निशानदिही करता है।
21. वहाँ से याक़ूब ने अपना सफ़र जारी रखा और मिज्दल-इदर की परली तरफ़ अपने ख़ैमे लगाए।
22. जब वह वहाँ ठहरे थे तो रूबिन याक़ूब की हरम बिल्हाह से हमबिसतर हुआ। याक़ूब को मालूम हो गया। याक़ूब के बारह बेटे थे।
23. लियाह के बेटे यह थे : उस का सब से बड़ा बेटा रूबिन, फिर शमाऊन, लावी, यहूदाह, इश्कार और ज़बूलून।
24. राख़िल के दो बेटे थे, यूसुफ़ और बिन्यमीन।
25. राख़िल की लौंडी बिल्हाह के दो बेटे थे, दान और नफ़्ताली।
26. लियाह की लौंडी ज़िल्फ़ा के दो बेटे थे, जद और आशर। याक़ूब के यह बेटे मसोपुतामिया में पैदा हुए।
27. फिर याक़ूब अपने बाप इस्हाक़ के पास पहुँच गया जो हब्रून के क़रीब मम्रे में अजनबी की हैसियत से रहता था (उस वक़्त हब्रून का नाम क़िर्यत-अर्बा था)। वहाँ इस्हाक़ और उस से पहले इब्राहीम रहा करते थे।
28. इस्हाक़ 180 साल का था जब वह उम्ररसीदा और ज़िन्दगी से आसूदा हो कर अपने बापदादा से जा मिला। उस के बेटे एसौ और याक़ूब ने उसे दफ़न किया।
29. इस्हाक़ 180 साल का था जब वह उम्ररसीदा और ज़िन्दगी से आसूदा हो कर अपने बापदादा से जा मिला। उस के बेटे एसौ और याक़ूब ने उसे दफ़न किया।

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