Ezekiel (1/48) → |
1. | जब मैं यानी इमाम हिज़्क़ीएल बिन बूज़ी तीस साल का था तो मैं यहूदाह के जिलावतनों के साथ मुल्क-ए-बाबल के दरया किबार के किनारे ठहरा हुआ था। यहूयाकीन बादशाह को जिलावतन हुए पाँच साल हो गए थे। चौथे महीने के पाँचवें दिन आस्मान खुल गया और अल्लाह ने मुझ पर मुख़्तलिफ़ रोयाएँ ज़ाहिर कीं। उस वक़्त रब्ब मुझ से हमकलाम हुआ, और उस का हाथ मुझ पर आ ठहरा। |
2. | जब मैं यानी इमाम हिज़्क़ीएल बिन बूज़ी तीस साल का था तो मैं यहूदाह के जिलावतनों के साथ मुल्क-ए-बाबल के दरया किबार के किनारे ठहरा हुआ था। यहूयाकीन बादशाह को जिलावतन हुए पाँच साल हो गए थे। चौथे महीने के पाँचवें दिन आस्मान खुल गया और अल्लाह ने मुझ पर मुख़्तलिफ़ रोयाएँ ज़ाहिर कीं। उस वक़्त रब्ब मुझ से हमकलाम हुआ, और उस का हाथ मुझ पर आ ठहरा। |
3. | जब मैं यानी इमाम हिज़्क़ीएल बिन बूज़ी तीस साल का था तो मैं यहूदाह के जिलावतनों के साथ मुल्क-ए-बाबल के दरया किबार के किनारे ठहरा हुआ था। यहूयाकीन बादशाह को जिलावतन हुए पाँच साल हो गए थे। चौथे महीने के पाँचवें दिन आस्मान खुल गया और अल्लाह ने मुझ पर मुख़्तलिफ़ रोयाएँ ज़ाहिर कीं। उस वक़्त रब्ब मुझ से हमकलाम हुआ, और उस का हाथ मुझ पर आ ठहरा। |
4. | रोया में मैं ने ज़बरदस्त आँधी देखी जिस ने शिमाल से आ कर बड़ा बादल मेरे पास पहुँचाया। बादल में चमकती दमकती आग नज़र आई, और वह तेज़ रौशनी से घिरा हुआ था। आग का मर्कज़ चमकदार धात की तरह तमतमा रहा था। |
5. | आग में चार जानदारों जैसे चल रहे थे जिन की शक्ल-ओ-सूरत इन्सानी थी। |
6. | लेकिन हर एक के चार चिहरे और चार पर थे। |
7. | उन की टाँगें इन्सानों जैसी सीधी थीं, लेकिन पाँओ के तल्वे बछड़ों के से खुर थे। वह पालिश किए हुए पीतल की तरह जगमगा रहे थे। |
8. | चारों के चिहरे और पर थे, और चारों परों के नीचे इन्सानी हाथ दिखाई दिए। |
9. | जानदार अपने परों से एक दूसरे को छू रहे थे। चलते वक़्त मुड़ने की ज़रूरत नहीं थी, क्यूँकि हर एक के चार चिहरे चारों तरफ़ देखते थे। जब कभी किसी सिम्त जाना होता तो उसी सिम्त का चिहरा चल पड़ता। |
10. | चारों के चिहरे एक जैसे थे। सामने का चिहरा इन्सान का, दाईं तरफ़ का चिहरा शेरबबर का, बाईं तरफ़ का चिहरा बैल का और पीछे का चिहरा उक़ाब का था। |
11. | उन के पर ऊपर की तरफ़ फैले हुए थे। दो पर बाएँ और दाएँ हाथ के जानदारों से लगते थे, और दो पर उन के जिस्मों को ढाँपे रखते थे। |
12. | जहाँ भी अल्लाह का रूह जाना चाहता था वहाँ यह जानदार चल पड़ते। उन्हें मुड़ने की ज़रूरत नहीं थी, क्यूँकि वह हमेशा अपने चारों चिहरों में से एक का रुख़ इख़तियार करते थे। |
13. | जानदारों के बीच में ऐसा लग रहा था जैसे कोइले दहक रहे हों, कि उन के दर्मियान मशअलें इधर उधर चल रही हों। झिलमिलाती आग में से बिजली भी चमक कर निकलती थी। |
14. | जानदार ख़ुद इतनी तेज़ी से इधर उधर घूम रहे थे कि बादल की बिजली जैसे नज़र आ रहे थे। |
15. | जब मैं ने ग़ौर से उन पर नज़र डाली तो देखा कि हर एक जानदार के पास पहिया है जो ज़मीन को छू रहा है। |
16. | लगता था कि चारों पहिए पुखराज से बने हुए हैं। चारों एक जैसे थे। हर पहिए के अन्दर एक और पहिया ज़ाविया-ए-क़ाइमा में घूम रहा था, |
17. | इस लिए वह मुड़े बग़ैर हर रुख़ इख़तियार कर सकते थे। |
18. | उन के लम्बे चक्कर ख़ौफ़नाक थे, और चक्करों की हर जगह पर आँखें ही आँखें थीं। |
19. | जब चार जानदार चलते तो चारों पहिए भी साथ चलते, जब जानदार ज़मीन से उड़ते तो पहिए भी साथ उड़ते थे। |
20. | जहाँ भी अल्लाह का रूह जाता वहाँ जानदार भी जाते थे। पहिए भी उड़ कर साथ साथ चलते थे, क्यूँकि जानदारों की रूह पहियों में थी। |
21. | जब कभी जानदार चलते तो यह भी चलते, जब रुक जाते तो यह भी रुक जाते, जब उड़ते तो यह भी उड़ते। क्यूँकि जानदारों की रूह पहियों में थी। |
22. | जानदारों के सरों के ऊपर गुम्बद सा फैला हुआ था जो साफ़-शफ़्फ़ाफ़ बिल्लौर जैसी लग रहा था। उसे देख कर इन्सान घबरा जाता था। |
23. | चारों जानदार इस गुम्बद के नीचे थे, और हर एक अपने परों को फैला कर एक से बाईं तरफ़ के साथी और दूसरे से दाईं तरफ़ के साथी को छू रहा था। बाक़ी दो परों से वह अपने जिस्म को ढाँपे रखता था। |
24. | चलते वक़्त उन के परों का शोर मुझ तक पहुँचा। यूँ लग रहा था जैसे क़रीब ही ज़बरदस्त आबशार बह रही हो, कि क़ादिर-ए-मुतलक़ कोई बात फ़रमा रहा हो, या कि कोई लश्कर हर्कत में आ गया हो। रुकते वक़्त वह अपने परों को नीचे लटकने देते थे। |
25. | फिर गुम्बद के ऊपर से आवाज़ सुनाई दी, और जानदारों ने रुक कर अपने परों को लटकने दिया। |
26. | मैं ने देखा कि उन के सरों के ऊपर के गुम्बद पर संग-ए-लाजवर्द का तख़्त सा नज़र आ रहा है जिस पर कोई बैठा था जिस की शक्ल-ओ-सूरत इन्सान की मानिन्द है। |
27. | लेकिन कमर से ले कर सर तक वह चमकदार धात की तरह तमतमा रहा था, जबकि कमर से ले कर पाँओ तक आग की मानिन्द भड़क रहा था। तेज़ रौशनी उस के इर्दगिर्द झिलमिला रही थी। |
28. | उसे देख कर क़ौस-ए-क़ुज़ह की वह आब-ओ-ताब याद आती थी जो बारिश होते वक़्त बादल में दिखाई देती है। यूँ रब्ब का जलाल नज़र आया। यह देखते ही मैं औंधे मुँह गिर गया। इसी हालत में कोई मुझ से बात करने लगा। |
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