Ecclesiastes (3/12)  

1. हर चीज़ की अपनी घड़ी होती, आस्मान तले हर मुआमले का अपना वक़्त होता है,
2. जन्म लेने और मरने का, पौदा लगाने और उखाड़ने का,
3. मार देने और शिफ़ा देने का, ढा देने और तामीर करने का,
4. रोने और हँसने का, आहें भरने और रक़्स करने का,
5. पत्थर फैंकने और पत्थर जमा करने का, गले मिलने और इस से बाज़ रहने का,
6. तलाश करने और खो देने का, मह्फ़ूज़ रखने और फैंकने का,
7. फाड़ने और सी कर जोड़ने का, ख़ामोश रहने और बोलने का,
8. पियार करने और नफ़रत करने का, जंग लड़ने और सलामती से ज़िन्दगी गुज़ारने का,
9. चुनाँचे क्या फ़ाइदा है कि काम करने वाला मेहनत-मशक़्क़त करे?
10. मैं ने वह तक्लीफ़दिह काम-काज देखा जो अल्लाह ने इन्सान के सपुर्द किया ताकि वह उस में उलझा रहे।
11. उस ने हर चीज़ को यूँ बनाया है कि वह अपने वक़्त के लिए ख़ूबसूरत और मुनासिब हो। उस ने इन्सान के दिल में जाविदानी भी डाली है, गो वह शुरू से ले कर आख़िर तक उस काम की तह तक नहीं पहुँच सकता जो अल्लाह ने किया है।
12. मैं ने जान लिया कि इन्सान के लिए इस से बेहतर कुछ नहीं है कि वह ख़ुश रहे और जीते जी ज़िन्दगी का मज़ा ले।
13. क्यूँकि अगर कोई खाए पिए और तमाम मेहनत-मशक़्क़त के साथ साथ ख़ुशहाल भी हो तो यह अल्लाह की बख़्शिश है।
14. मुझे समझ आई कि जो कुछ अल्लाह करे वह अबद तक क़ाइम रहेगा। उस में न इज़ाफ़ा हो सकता है न कमी। अल्लाह यह सब कुछ इस लिए करता है कि इन्सान उस का ख़ौफ़ माने।
15. जो हाल में पेश आ रहा है वह माज़ी में पेश आ चुका है, और जो मुस्तक़बिल में पेश आएगा वह भी पेश आ चुका है। हाँ, जो कुछ गुज़र चुका है उसे अल्लाह दुबारा वापस लाता है।
16. मैं ने सूरज तले मज़ीद देखा, जहाँ अदालत करनी है वहाँ नाइन्साफ़ी है, जहाँ इन्साफ़ करना है वहाँ बेदीनी है।
17. लेकिन मैं दिल में बोला, “अल्लाह रास्तबाज़ और बेदीन दोनों की अदालत करेगा, क्यूँकि हर मुआमले और काम का अपना वक़्त होता है।”
18. मैं ने यह भी सोचा, “जहाँ तक इन्सानों का ताल्लुक़ है अल्लाह उन की जाँच-पड़ताल करता है ताकि उन्हें पता चले कि वह जानवरों की मानिन्द हैं।
19. क्यूँकि इन्सान-ओ-हैवान का एक ही अन्जाम है। दोनों दम छोड़ते, दोनों में एक सा दम है, इस लिए इन्सान को हैवान की निस्बत ज़ियादा फ़ाइदा हासिल नहीं होता। सब कुछ बातिल ही है।
20. सब कुछ एक ही जगह चला जाता है, सब कुछ ख़ाक से बना है और सब कुछ दुबारा ख़ाक में मिल जाएगा।
21. कौन यक़ीन से कह सकता है कि इन्सान की रूह ऊपर की तरफ़ जाती और हैवान की रूह नीचे ज़मीन में उतरती है?”
22. ग़रज़ मैं ने जान लिया कि इन्सान के लिए इस से बेहतर कुछ नहीं है कि वह अपने कामों में ख़ुश रहे, यही उस के नसीब में है। क्यूँकि कौन उसे वह देखने के क़ाबिल बनाएगा जो उस के बाद पेश आएगा? कोई नहीं!

  Ecclesiastes (3/12)