← Ecclesiastes (2/12) → |
1. | मैं ने अपने आप से कहा, “आ, ख़ुशी को आज़्मा कर अच्छी चीज़ों का तजरिबा कर!” लेकिन यह भी बातिल ही निकला। |
2. | मैं बोला, “हंसना बेहूदा है, और ख़ुशी से क्या हासिल होता है?” |
3. | मैं ने दिल में अपना जिस्म मै से तर-ओ-ताज़ा करने और हमाक़त अपनाने के तरीक़े ढूँड निकाले। इस के पीछे भी मेरी हिक्मत मालूम करने की कोशिश थी, क्यूँकि मैं देखना चाहता था कि जब तक इन्सान आस्मान तले जीता रहे उस के लिए क्या कुछ करना मुफ़ीद है। |
4. | मैं ने बड़े बड़े काम अन्जाम दिए, अपने लिए मकान तामीर किए, ताकिस्तान लगाए, |
5. | मुतअद्दिद बाग़ और पार्क लगा कर उन में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के फलदार दरख़्त लगाए। |
6. | फलने फूलने वाले जंगल की आबपाशी के लिए मैं ने तालाब तय्यार करवाए। |
7. | मैं ने ग़ुलाम और लौंडियाँ ख़रीद लीं। ऐसे ग़ुलाम भी बहुत थे जो घर में पैदा हुए थे। मुझे उतने गाय-बैल और भेड़-बक्रियाँ मिलीं जितनी मुझ से पहले यरूशलम में किसी को हासिल न थीं। |
8. | मैं ने अपने लिए सोना-चाँदी और बादशाहों और सूबों के ख़ज़ाने जमा किए। मैं ने गुलूकार मर्द-ओ-ख़वातीन हासिल किए, साथ साथ कस्रत की ऐसी चीज़ें जिन से इन्सान अपना दिल बहलाता है। |
9. | यूँ मैं ने बहुत तरक़्क़ी करके उन सब पर सब्क़त हासिल की जो मुझ से पहले यरूशलम में थे। और हर काम में मेरी हिक्मत मेरे दिल में क़ाइम रही। |
10. | जो कुछ भी मेरी आँखें चाहती थीं वह मैं ने उन के लिए मुहय्या किया, मैं ने अपने दिल से किसी भी ख़ुशी का इन्कार न किया। मेरे दिल ने मेरे हर काम से लुत्फ़ उठाया, और यह मेरी तमाम मेहनत-मशक़्क़त का अज्र रहा। |
11. | लेकिन जब मैं ने अपने हाथों के तमाम कामों का जाइज़ा लिया, उस मेहनत-मशक़्क़त का जो मैं ने की थी तो नतीजा यही निकला कि सब कुछ बातिल और हवा को पकड़ने के बराबर है। सूरज तले किसी भी काम का फ़ाइदा नहीं होता। |
12. | फिर मैं हिक्मत, बेहुदगी और हमाक़त पर ग़ौर करने लगा। मैं ने सोचा, जो आदमी बादशाह की वफ़ात पर तख़्तनशीन होगा वह क्या करेगा? वही कुछ जो पहले भी किया जा चुका है! |
13. | मैं ने देखा कि जिस तरह रौशनी अंधेरे से बेहतर है उसी तरह हिक्मत हमाक़त से बेहतर है। |
14. | दानिशमन्द के सर में आँखें हैं जबकि अहमक़ अंधेरे ही में चलता है। लेकिन मैं ने यह भी जान लिया कि दोनों का एक ही अन्जाम है। |
15. | मैं ने दिल में कहा, “अहमक़ का सा अन्जाम मेरा भी होगा। तो फिर इतनी ज़ियादा हिक्मत हासिल करने का क्या फ़ाइदा है? यह भी बातिल है।” |
16. | क्यूँकि अहमक़ की तरह दानिशमन्द की याद भी हमेशा तक नहीं रहेगी। आने वाले दिनों में सब की याद मिट जाएगी। अहमक़ की तरह दानिशमन्द को भी मरना ही है! |
17. | यूँ सोचते सोचते मैं ज़िन्दगी से नफ़रत करने लगा। जो भी काम सूरज तले किया जाता है वह मुझे बुरा लगा, क्यूँकि सब कुछ बातिल और हवा को पकड़ने के बराबर है। |
18. | सूरज तले मैं ने जो कुछ भी मेहनत-मशक़्क़त से हासिल किया था उस से मुझे नफ़रत हो गई, क्यूँकि मुझे यह सब कुछ उस के लिए छोड़ना है जो मेरे बाद मेरी जगह आएगा। |
19. | और क्या मालूम कि वह दानिशमन्द या अहमक़ होगा? लेकिन जो भी हो, वह उन तमाम चीज़ों का मालिक होगा जो हासिल करने के लिए मैं ने सूरज तले अपनी पूरी ताक़त और हिक्मत सर्फ़ की है। यह भी बातिल है। |
20. | तब मेरा दिल मायूस हो कर हिम्मत हारने लगा, क्यूँकि जो भी मेहनत-मशक़्क़त मैं ने सूरज तले की थी वह बेकार सी लगी। |
21. | क्यूँकि ख़्वाह इन्सान अपना काम हिक्मत, इल्म और महारत से क्यूँ न करे, आख़िरकार उसे सब कुछ किसी के लिए छोड़ना है जिस ने उस के लिए एक उंगली भी नहीं हिलाई। यह भी बातिल और बड़ी मुसीबत है। |
22. | क्यूँकि आख़िर में इन्सान के लिए क्या कुछ क़ाइम रहता है, जबकि उस ने सूरज तले इतनी मेहनत-मशक़्क़त और कोशिशों के साथ सब कुछ हासिल कर लिया है? |
23. | उस के तमाम दिन दुख और रंजीदगी से भरे रहते हैं, रात को भी उस का दिल आराम नहीं पाता। यह भी बातिल ही है। |
24. | इन्सान के लिए सब से अच्छी बात यह है कि खाए पिए और अपनी मेहनत-मशक़्क़त के फल से लुत्फ़अन्दोज़ हो। लेकिन मैं ने यह भी जान लिया कि अल्लाह ही यह सब कुछ मुहय्या करता है। |
25. | क्यूँकि उस के बग़ैर कौन खा कर ख़ुश हो सकता है? कोई नहीं! |
26. | जो इन्सान अल्लाह को मन्ज़ूर हो उसे वह हिक्मत, इल्म-ओ-इर्फ़ान और ख़ुशी अता करता है, लेकिन गुनाहगार को वह जमा करने और ज़ख़ीरा करने की ज़िम्मादारी देता है ताकि बाद में यह दौलत अल्लाह को मन्ज़ूर शख़्स के हवाले की जाए। यह भी बातिल और हवा को पकड़ने के बराबर है। |
← Ecclesiastes (2/12) → |