| Deuteronomy (1/34) → | 
| 1. | इस किताब में वह बातें दर्ज हैं जो मूसा ने तमाम इस्राईलियों से कहीं जब वह दरया-ए-यर्दन के मशरिक़ी किनारे पर बियाबान में थे। वह यर्दन की वादी में सूफ़ के क़रीब थे। एक तरफ़ फ़ारान शहर था और दूसरी तरफ़ तोफ़ल, लाबन, हसीरात और दीज़हब के शहर थे। | 
| 2. | अगर अदोम के पहाड़ी इलाक़े से हो कर जाएँ तो होरिब यानी सीना पहाड़ से क़ादिस-बर्नीअ तक का सफ़र 11 दिन में तै किया जा सकता है। | 
| 3. | इस्राईलियों को मिस्र से निकले 40 साल हो गए थे। इस साल के ग्यारवें माह के पहले दिन मूसा ने उन्हें सब कुछ बताया जो रब्ब ने उसे उन्हें बताने को कहा था। | 
| 4. | उस वक़्त वह अमोरियों के बादशाह सीहोन को शिकस्त दे चुका था जिस का दार-उल-हकूमत हस्बोन था। बसन के बादशाह ओज पर भी फ़त्ह हासिल हो चुकी थी जिस की हुकूमत के मर्कज़ अस्तारात और इद्रई थे। | 
| 5. | वहाँ, दरया-ए-यर्दन के मशरिक़ी किनारे पर जो मोआब के इलाक़े में था मूसा अल्लाह की शरीअत की तश्रीह करने लगा। उस ने कहा, | 
| 6. | जब तुम होरिब यानी सीना पहाड़ के पास थे तो रब्ब हमारे ख़ुदा ने हम से कहा, “तुम काफ़ी देर से यहाँ ठहरे हुए हो। | 
| 7. | अब इस जगह को छोड़ कर आगे मुल्क-ए-कनआन की तरफ़ बढ़ो। अमोरियों के पहाड़ी इलाक़े और उन के पड़ोस की क़ौमों के पास जाओ जो यर्दन के मैदानी इलाक़े में आबाद हैं। पहाड़ी इलाक़े में, मग़रिब के निशेबी पहाड़ी इलाक़े में, जुनूब के दश्त-ए-नजब में, साहिली इलाक़े में, मुल्क-ए-कनआन में और लुब्नान में दरया-ए-फ़ुरात तक चले जाओ। | 
| 8. | मैं ने तुम्हें यह मुल्क दे दिया है। अब जा कर उस पर क़ब्ज़ा कर लो। क्यूँकि रब्ब ने क़सम खा कर तुम्हारे बापदादा इब्राहीम, इस्हाक़ और याक़ूब से वादा किया था कि मैं यह मुल्क तुम्हें और तुम्हारी औलाद को दूँगा।” | 
| 9. | उस वक़्त मैं ने तुम से कहा, “मैं अकेला तुम्हारी राहनुमाई करने की ज़िम्मादारी नहीं उठा सकता। | 
| 10. | रब्ब तुम्हारे ख़ुदा ने तुम्हारी तादाद इतनी बढ़ा दी है कि आज तुम आस्मान के सितारों की मानिन्द बेशुमार हो। | 
| 11. | और रब्ब तुम्हारे बापदादा का ख़ुदा करे कि तुम्हारी तादाद मज़ीद हज़ार गुना बढ़ जाए। वह तुम्हें वह बर्कत दे जिस का वादा उस ने किया है। | 
| 12. | लेकिन मैं अकेला ही तुम्हारा बोझ उठाने और झगड़ों को निपटाने की ज़िम्मादारी नहीं उठा सकता। | 
| 13. | इस लिए अपने हर क़बीले में से कुछ ऐसे दानिशमन्द और समझदार आदमी चुन लो जिन की लियाक़त को लोग मानते हैं। फिर मैं उन्हें तुम पर मुक़र्रर करूँगा।” | 
| 14. | यह बात तुम्हें पसन्द आई। | 
| 15. | तुम ने अपने में से ऐसे राहनुमा चुन लिए जो दानिशमन्द थे और जिन की लियाक़त को लोग मानते थे। फिर मैं ने उन्हें हज़ार हज़ार, सौ सौ और पचास पचास मर्दों पर मुक़र्रर किया। यूँ वह क़बीलों के निगहबान बन गए। | 
| 16. | उस वक़्त मैं ने उन क़ाज़ियों से कहा, “अदालत करते वक़्त हर एक की बात ग़ौर से सुन कर ग़ैरजानिबदार फ़ैसले करना, चाहे दो इस्राईली फ़रीक़ एक दूसरे से झगड़ा कर रहे हों या मुआमला किसी इस्राईली और परदेसी के दर्मियान हो। | 
| 17. | अदालत करते वक़्त जानिबदारी न करना। छोटे और बड़े की बात सुन कर दोनों के साथ एक जैसा सुलूक करना। किसी से मत डरना, क्यूँकि अल्लाह ही ने तुम्हें अदालत करने की ज़िम्मादारी दी है। अगर किसी मुआमले में फ़ैसला करना तुम्हारे लिए मुश्किल हो तो उसे मुझे पेश करो। फिर मैं ही उस का फ़ैसला करूँगा।” | 
| 18. | उस वक़्त मैं ने तुम्हें सब कुछ बताया जो तुम्हें करना था। | 
| 19. | हम ने वैसा ही किया जैसा रब्ब ने हमें कहा था। हम होरिब से रवाना हो कर अमोरियों के पहाड़ी इलाक़े की तरफ़ बढ़े। सफ़र करते करते हम उस वसी और हौलनाक रेगिस्तान में से गुज़र गए जिसे तुम ने देख लिया है। आख़िरकार हम क़ादिस-बर्नीअ पहुँच गए। | 
| 20. | वहाँ मैं ने तुम से कहा, “तुम अमोरियों के पहाड़ी इलाक़े तक पहुँच गए हो जो रब्ब हमारा ख़ुदा हमें देने वाला है। | 
| 21. | देख, रब्ब तेरे ख़ुदा ने तुझे यह मुल्क दे दिया है। अब जा कर उस पर क़ब्ज़ा कर ले जिस तरह रब्ब तेरे बापदादा के ख़ुदा ने तुझे बताया है। मत डरना और बेदिल न हो जाना!” | 
| 22. | लेकिन तुम सब मेरे पास आए और कहा, “क्यूँ न हम जाने से पहले कुछ आदमी भेजें जो मुल्क के हालात दरयाफ़्त करें और वापस आ कर हमें उस रास्ते के बारे में बताएँ जिस पर हमें जाना है और उन शहरों के बारे में इत्तिला दें जिन के पास हम पहुँचेंगे।” | 
| 23. | यह बात मुझे पसन्द आई। मैं ने इस काम के लिए हर क़बीले के एक आदमी को चुन कर भेज दिया। | 
| 24. | जब यह बारह आदमी पहाड़ी इलाक़े में जा कर वादी-ए-इस्काल में पहुँचे तो उस की तफ़्तीश की। | 
| 25. | फिर वह मुल्क का कुछ फल ले कर लौट आए और हमें मुल्क के बारे में इत्तिला दे कर कहा, “जो मुल्क रब्ब हमारा ख़ुदा हमें देने वाला है वह अच्छा है।” | 
| 26. | लेकिन तुम जाना नहीं चाहते थे बल्कि सरकशी करके रब्ब अपने ख़ुदा का हुक्म न माना। | 
| 27. | तुम ने अपने ख़ैमों में बुड़बुड़ाते हुए कहा, “रब्ब हम से नफ़रत रखता है। वह हमें मिस्र से निकाल लाया है ताकि हमें अमोरियों के हाथों हलाक करवाए। | 
| 28. | हम कहाँ जाएँ? हमारे भाइयों ने हमें बेदिल कर दिया है। वह कहते हैं, ‘वहाँ के लोग हम से ताक़तवर और दराज़क़द हैं। उन के बड़े बड़े शहरों की फ़सीलें आस्मान से बातें करती हैं। वहाँ हम ने अनाक़ की औलाद भी देखी जो देओ हैं’।” | 
| 29. | मैं ने कहा, “न घबराओ और न उन से ख़ौफ़ खाओ। | 
| 30. | रब्ब तुम्हारा ख़ुदा तुम्हारे आगे आगे चलता हुआ तुम्हारे लिए लड़ेगा। तुम ख़ुद देख चुके हो कि वह किस तरह मिस्र | 
| 31. | और रेगिस्तान में तुम्हारे लिए लड़ा। यहाँ भी वह ऐसा ही करेगा। तू ख़ुद गवाह है कि बियाबान में पूरे सफ़र के दौरान रब्ब तुझे यूँ उठाए फिरा जिस तरह बाप अपने बेटे को उठाए फिरता है। इस तरह चलते चलते तुम यहाँ तक पहुँच गए।” | 
| 32. | इस के बावुजूद तुम ने रब्ब अपने ख़ुदा पर भरोसा न रखा। | 
| 33. | तुम ने यह बात नज़रअन्दाज़ की कि वह सफ़र के दौरान रात के वक़्त आग और दिन के वक़्त बादल की सूरत में तुम्हारे आगे आगे चलता रहा ताकि तुम्हारे लिए ख़ैमे लगाने की जगहें मालूम करे और तुम्हें रास्ता दिखाए। | 
| 34. | जब रब्ब ने तुम्हारी यह बातें सुनीं तो उसे ग़ुस्सा आया और उस ने क़सम खा कर कहा, | 
| 35. | “इस शरीर नसल का एक मर्द भी उस अच्छे मुल्क को नहीं देखेगा अगरचि मैं ने क़सम खा कर तुम्हारे बापदादा से वादा किया था कि मैं उसे उन्हें दूँगा। | 
| 36. | सिर्फ़ कालिब बिन यफ़ुन्ना उसे देखेगा। मैं उसे और उस की औलाद को वह मुल्क दूँगा जिस में उस ने सफ़र किया है, क्यूँकि उस ने पूरे तौर पर रब्ब की पैरवी की।” | 
| 37. | तुम्हारी वजह से रब्ब मुझ से भी नाराज़ हुआ और कहा, “तू भी उस में दाख़िल नहीं होगा। | 
| 38. | लेकिन तेरा मददगार यशूअ बिन नून दाख़िल होगा। उस की हौसलाअफ़्ज़ाई कर, क्यूँकि वह मुल्क पर क़ब्ज़ा करने में इस्राईल की राहनुमाई करेगा।” | 
| 39. | तुम से रब्ब ने कहा, “तुम्हारे बच्चे जो अभी अच्छे और बुरे में इमतियाज़ नहीं कर सकते, वही मुल्क में दाख़िल होंगे, वही बच्चे जिन के बारे में तुम ने कहा कि दुश्मन उन्हें मुल्क-ए-कनआन में छीन लेंगे। उन्हें मैं मुल्क दूँगा, और वह उस पर क़ब्ज़ा करेंगे। | 
| 40. | लेकिन तुम ख़ुद आगे न बढ़ो। पीछे मुड़ कर दुबारा रेगिस्तान में बहर-ए-क़ुल्ज़ुम की तरफ़ सफ़र करो।” | 
| 41. | तब तुम ने कहा, “हम ने रब्ब का गुनाह किया है। अब हम मुल्क में जा कर लड़ेंगे, जिस तरह रब्ब हमारे ख़ुदा ने हमें हुक्म दिया है।” चुनाँचे यह सोचते हुए कि उस पहाड़ी इलाक़े पर हम्ला करना आसान होगा, हर एक मुसल्लह हुआ। | 
| 42. | लेकिन रब्ब ने मुझ से कहा, “उन्हें बताना कि वहाँ जंग करने के लिए न जाओ, क्यूँकि मैं तुम्हारे साथ नहीं हूँगा। तुम अपने दुश्मनों के हाथों शिकस्त खाओगे।” | 
| 43. | मैं ने तुम्हें यह बताया, लेकिन तुम ने मेरी न सुनी। तुम ने सरकशी करके रब्ब का हुक्म न माना बल्कि मग़रूर हो कर पहाड़ी इलाक़े में दाख़िल हुए। | 
| 44. | वहाँ के अमोरी बाशिन्दे तुम्हारा सामना करने निकले। वह शहद की मक्खियों के ग़ोल की तरह तुम पर टूट पड़े और तुम्हारा ताक़्क़ुब करके तुम्हें सईर से हुर्मा तक मारते गए। | 
| 45. | तब तुम वापस आ कर रब्ब के सामने ज़ार-ओ-क़तार रोने लगे। लेकिन उस ने तवज्जुह न दी बल्कि तुम्हें नज़रअन्दाज़ किया। | 
| 46. | इस के बाद तुम बहुत दिनों तक क़ादिस-बर्नीअ में रहे। | 
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