← Acts (9/28) → |
1. | अब तक साऊल ख़ुदावन्द के शागिर्दों को धमकाने और क़त्ल करने के दरपै था। उस ने इमाम-ए-आज़म के पास जा कर |
2. | उस से गुज़ारिश की कि “मुझे दमिश्क़ में यहूदी इबादतख़ानों के लिए सिफ़ारिशी ख़त लिख कर दें ताकि वह मेरे साथ तआवुन करें। क्यूँकि मैं वहाँ मसीह की राह पर चलने वालों को ख़्वाह वह मर्द हों या ख़वातीन ढूँड कर और बाँध कर यरूशलम लाना चाहता हूँ।” |
3. | वह इस मक़्सद से सफ़र करके दमिश्क़ के क़रीब पहुँचा ही था कि अचानक आस्मान की तरफ़ से एक तेज़ रौशनी उस के गिर्द चमकी। |
4. | वह ज़मीन पर गिर पड़ा तो एक आवाज़ सुनाई दी, “साऊल, साऊल, तू मुझे क्यूँ सताता है?” |
5. | उस ने पूछा, “ख़ुदावन्द, आप कौन हैं?” आवाज़ ने जवाब दिया, “मैं ईसा हूँ जिसे तू सताता है। |
6. | अब उठ कर शहर में जा। वहाँ तुझे बताया जाएगा कि तुझे क्या करना है।” |
7. | साऊल के पास खड़े हमसफ़र दम-ब-ख़ुद रह गए। आवाज़ तो वह सुन रहे थे, लेकिन उन्हें कोई नज़र न आया। |
8. | साऊल ज़मीन पर से उठा, लेकिन जब उस ने अपनी आँखें खोलीं तो मालूम हुआ कि वह अंधा है। चुनाँचे उस के साथी उस का हाथ पकड़ कर उसे दमिश्क़ ले गए। |
9. | वहाँ तीन दिन के दौरान वह अंधा रहा। इतने में उस ने न कुछ खाया, न पिया। |
10. | उस वक़्त दमिश्क़ में ईसा का एक शागिर्द रहता था जिस का नाम हननियाह था। अब ख़ुदावन्द रोया में उस से हमकलाम हुआ, “हननियाह!” उस ने जवाब दिया, “जी ख़ुदावन्द, मैं हाज़िर हूँ।” |
11. | ख़ुदावन्द ने फ़रमाया, “उठ, उस गली में जा जो ‘सीधी’ कहलाती है। वहाँ यहूदाह के घर में तर्सुस के एक आदमी का पता करना जिस का नाम साऊल है। क्यूँकि देख, वह दुआ कर रहा है। |
12. | और रोया में उस ने देख लिया है कि एक आदमी बनाम हननियाह मेरे पास आ कर अपने हाथ मुझ पर रखेगा। इस से मेरी आँखें बहाल हो जाएँगी।” |
13. | हननियाह ने एतिराज़ किया, “ऐ ख़ुदावन्द, मैं ने बहुत से लोगों से उस शख़्स की शरीर हर्कतों के बारे में सुना है। यरूशलम में उस ने तेरे मुक़द्दसों के साथ बहुत ज़ियादती की है। |
14. | अब उसे राहनुमा इमामों से इख़तियार मिल गया है कि यहाँ भी हर एक को गिरिफ़्तार करे जो तेरी इबादत करता है।” |
15. | लेकिन ख़ुदावन्द ने कहा, “जा, यह आदमी मेरा चुना हुआ वसीला है जो मेरा नाम ग़ैरयहूदियों, बादशाहों और इस्राईलियों तक पहुँचाएगा। |
16. | और मैं उसे दिखा दूँगा कि उसे मेरे नाम की ख़ातिर कितना दुख उठाना पड़ेगा।” |
17. | चुनाँचे हननियाह मज़्कूरा घर के पास गया, उस में दाख़िल हुआ और अपने हाथ साऊल पर रख दिए। उस ने कहा, “साऊल भाई, ख़ुदावन्द ईसा जो आप पर ज़ाहिर हुआ जब आप यहाँ आ रहे थे उसी ने मुझे भेजा है ताकि आप दुबारा देख पाएँ और रूह-उल-क़ुद्स से मामूर हो जाएँ।” |
18. | यह कहते ही छिलकों जैसी कोई चीज़ साऊल की आँखों पर से गिरी और वह दुबारा देखने लगा। उस ने उठ कर बपतिस्मा लिया, |
19. | फिर कुछ खाना खा कर नए सिरे से तक़वियत पाई। साऊल कई दिन शागिर्दों के साथ दमिश्क़ में रहा। |
20. | उसी वक़्त वह सीधा यहूदी इबादतख़ानों में जा कर एलान करने लगा कि ईसा अल्लाह का फ़र्ज़न्द है। |
21. | और जिस ने भी उसे सुना वह हैरान रह गया और पूछा, “क्या यह वह आदमी नहीं जो यरूशलम में ईसा की इबादत करने वालों को हलाक कर रहा था? और क्या वह इस मक़्सद से यहाँ नहीं आया कि ऐसे लोगों को बाँध कर राहनुमा इमामों के पास ले जाए?” |
22. | लेकिन साऊल रोज़-ब-रोज़ ज़ोर पकड़ता गया, और चूँकि उस ने साबित किया कि ईसा वादा किया हुआ मसीह है इस लिए दमिश्क़ में आबाद यहूदी उलझन में पड़ गए। |
23. | चुनाँचे काफ़ी दिनों के बाद उन्हों ने मिल कर उसे क़त्ल करने का मन्सूबा बनाया। |
24. | लेकिन साऊल को पता चल गया। यहूदी दिन रात शहर के दरवाज़ों की पहरादारी करते रहे ताकि उसे क़त्ल करें, |
25. | इस लिए उस के शागिर्दों ने उसे रात के वक़्त टोकरे में बिठा कर शहर की चारदीवारी के एक सूराख़ में से उतार दिया। |
26. | साऊल यरूशलम वापस चला गया। वहाँ उस ने शागिर्दों से राबिता करने की कोशिश की, लेकिन सब उस से डरते थे, क्यूँकि उन्हें यक़ीन नहीं आया था कि वह वाक़ई ईसा का शागिर्द बन गया है। |
27. | फिर बर्नबास उसे रसूलों के पास ले आया। उस ने उन्हें साऊल के बारे में सब कुछ बताया, कि उस ने दमिश्क़ की तरफ़ सफ़र करते वक़्त रास्ते में ख़ुदावन्द को देखा, कि ख़ुदावन्द उस से हमकलाम हुआ था और उस ने दमिश्क़ में दिलेरी से ईसा के नाम से बात की थी। |
28. | चुनाँचे साऊल उन के साथ रह कर आज़ादी से यरूशलम में फिरने और दिलेरी से ख़ुदावन्द ईसा के नाम से कलाम करने लगा। |
29. | उस ने यूनानी ज़बान बोलने वाले यहूदियों से भी मुख़ातिब हो कर बह्स की, लेकिन जवाब में वह उसे क़त्ल करने की कोशिश करने लगे। |
30. | जब भाइयों को मालूम हुआ तो उन्हों ने उसे क़ैसरिया पहुँचा दिया और जहाज़ में बिठा कर तर्सुस के लिए रवाना कर दिया। |
31. | इस पर यहूदिया, गलील और सामरिया के पूरे इलाक़े में फैली हुई जमाअत को अम्न-ओ-अमान हासिल हुआ। रूह-उल-क़ुद्स की हिमायत से उस की तामीर-ओ-तक़वियत हुई, वह ख़ुदा का ख़ौफ़ मान कर चलती रही और तादाद में भी बढ़ती गई। |
32. | एक दिन जब पत्रस जगह जगह सफ़र कर रहा था तो वह लुद्दा में आबाद मुक़द्दसों के पास भी आया। |
33. | वहाँ उस की मुलाक़ात एक आदमी बनाम ऐनियास से हुई। ऐनियास मफ़्लूज था। वह आठ साल से बिस्तर से उठ न सका था। |
34. | पत्रस ने उस से कहा, “ऐनियास, ईसा मसीह आप को शिफ़ा देता है। उठ कर अपना बिस्तर समेट लें।” ऐनियास फ़ौरन उठ खड़ा हुआ। |
35. | जब लुद्दा और मैदानी इलाक़े शारून के तमाम रहने वालों ने उसे देखा तो उन्हों ने ख़ुदावन्द की तरफ़ रुजू किया। |
36. | याफ़ा में एक औरत थी जो शागिर्द थी और नेक काम करने और ख़ैरात देने में बहुत आगे थी। उस का नाम तबीता (ग़ज़ाला) था। |
37. | उन ही दिनों में वह बीमार हो कर फ़ौत हो गई। लोगों ने उसे ग़ुसल दे कर बालाख़ाने में रख दिया। |
38. | लुद्दा याफ़ा के क़रीब है, इस लिए जब शागिर्दों ने सुना कि पत्रस लुद्दा में है तो उन्हों ने उस के पास दो आदमियों को भेज कर इलतिमास की, “सीधे हमारे पास आएँ और देर न करें।” |
39. | पत्रस उठ कर उन के साथ चला गया। वहाँ पहुँच कर लोग उसे बालाख़ाने में ले गए। तमाम बेवाओं ने उसे घेर लिया और रोते चिल्लाते वह सारी क़मीसें और बाक़ी लिबास दिखाने लगीं जो तबीता ने उन के लिए बनाए थे जब वह अभी ज़िन्दा थी। |
40. | लेकिन पत्रस ने उन सब को कमरे से निकाल दिया और घुटने टेक कर दुआ की। फिर लाश की तरफ़ मुड़ कर उस ने कहा, “तबीता, उठें!” औरत ने अपनी आँखें खोल दीं। पत्रस को देख कर वह बैठ गई। |
41. | पत्रस ने उस का हाथ पकड़ लिया और उठने में उस की मदद की। फिर उस ने मुक़द्दसों और बेवाओं को बुला कर तबीता को ज़िन्दा उन के सपुर्द किया। |
42. | यह वाक़िआ पूरे याफ़ा में मश्हूर हुआ, और बहुत से लोग ख़ुदावन्द ईसा पर ईमान लाए। |
43. | पत्रस काफ़ी दिनों तक याफ़ा में रहा। वहाँ वह चमड़ा रंगने वाले एक आदमी के घर ठहरा जिस का नाम शमाऊन था। |
← Acts (9/28) → |