Acts (5/28)  

1. एक और आदमी था जिस ने अपनी बीवी के साथ मिल कर अपनी कोई ज़मीन बेच दी। उन के नाम हननियाह और सफ़ीरा थे।
2. लेकिन हननियाह पूरी रक़म रसूलों के पास न लाया बल्कि उस में से कुछ अपने लिए रख छोड़ा और बाक़ी रसूलों के पाँओ में रख दिया। उस की बीवी भी इस बात से वाक़िफ़ थी।
3. लेकिन पत्रस ने कहा, “हननियाह, इब्लीस ने आप के दिल को यूँ क्यूँ भर दिया है कि आप ने रूह-उल-क़ुद्स से झूट बोला है? क्यूँकि आप ने ज़मीन की रक़म के कुछ पैसे अपने पास रख लिए हैं।
4. क्या यह ज़मीन फ़रोख़्त करने से पहले आप की नहीं थी? और उसे बेच कर क्या आप पैसे जैसे चाहते इस्तेमाल नहीं कर सकते थे? आप ने क्यूँ अपने दिल में यह ठान लिया? आप ने हमें नहीं बल्कि अल्लाह को धोका दिया है।”
5. यह सुनते ही हननियाह फ़र्श पर गिर कर मर गया। और तमाम सुनने वालों पर बड़ी दह्शत तारी हो गई।
6. जमाअत के नौजवानों ने उठ कर लाश को कफ़न में लपेट दिया और उसे बाहर ले जा कर दफ़न कर दिया।
7. तक़्रीबन तीन घंटे गुज़र गए तो उस की बीवी अन्दर आई। उसे मालूम न था कि शौहर को क्या हुआ है।
8. पत्रस ने उस से पूछा, “मुझे बताएँ, क्या आप को अपनी ज़मीन के लिए इतनी ही रक़म मिली थी?” सफ़ीरा ने जवाब दिया, “जी, इतनी ही रक़म थी।”
9. पत्रस ने कहा, “क्यूँ आप दोनों रब्ब के रूह को आज़्माने पर मुत्तफ़िक़ हुए? देखो, जिन्हों ने आप के ख़ावन्द को दफ़नाया है वह दरवाज़े पर खड़े हैं और आप को भी उठा कर बाहर ले जाएँगे।”
10. उसी लम्हे सफ़ीरा पत्रस के पाँओ में गिर कर मर गई। नौजवान अन्दर आए तो उस की लाश देख कर उसे भी बाहर ले गए और उस के शौहर के पास दफ़न कर दिया।
11. पूरी जमाअत बल्कि हर सुनने वाले पर बड़ा ख़ौफ़ तारी हो गया।
12. रसूलों की मारिफ़त अवाम में बहुत से इलाही निशान और मोजिज़े ज़ाहिर हुए। उस वक़्त तमाम ईमानदार यकदिली से बैत-उल-मुक़द्दस में सुलेमान के बराम्दे में जमा हुआ करते थे।
13. बाक़ी लोग उन से क़रीबी ताल्लुक़ रखने की जुरअत नहीं करते थे, अगरचि अवाम उन की बहुत इज़्ज़त करते थे।
14. तो भी ख़ुदावन्द पर ईमान रखने वाले मर्द-ओ-ख़वातीन की तादाद बढ़ती गई।
15. लोग अपने मरीज़ों को चारपाइयों और चटाइयों पर रख कर सड़कों पर लाते थे ताकि जब पत्रस वहाँ से गुज़रे तो कम अज़ कम उस का साया किसी न किसी पर पड़ जाए।
16. बहुत से लोग यरूशलम के इर्दगिर्द की आबादियों से भी अपने मरीज़ों और बदरुह-गिरिफ़्ता अज़ीज़ों को लाते, और सब शिफ़ा पाते थे।
17. फिर इमाम-ए-आज़म सदूक़ी फ़िर्क़े के तमाम साथियों के साथ हर्कत में आया। हसद से जल कर
18. उन्हों ने रसूलों को गिरिफ़्तार करके अवामी जेल में डाल दिया।
19. लेकिन रात को रब्ब का एक फ़रिश्ता क़ैदख़ाने के दरवाज़ों को खोल कर उन्हें बाहर लाया। उस ने कहा,
20. “जाओ, बैत-उल-मुक़द्दस में खड़े हो कर लोगों को इस नई ज़िन्दगी से मुताल्लिक़ सब बातें सुनाओ।”
21. फ़रिश्ते की सुन कर रसूल सुब्ह-सवेरे बैत-उल-मुक़द्दस में जा कर तालीम देने लगे। अब ऐसा हुआ कि इमाम-ए-आज़म अपने साथियों समेत पहुँचा और यहूदी अदालत-ए-आलिया का इज्लास मुनअक़िद किया। इस में इस्राईल के तमाम बुज़ुर्ग शरीक हुए। फिर उन्हों ने अपने मुलाज़िमों को क़ैदख़ाने में भेज दिया ताकि रसूलों को ला कर उन के सामने पेश किया जाए।
22. लेकिन जब वह वहाँ पहुँचे तो पता चला कि रसूल जेल में नहीं हैं। वह वापस आए और कहने लगे,
23. “जब हम पहुँचे तो जेल बड़ी एहतियात से बन्द थी और दरवाज़ों पर पहरेदार खड़े थे। लेकिन जब हम दरवाज़ों को खोल कर अन्दर गए तो वहाँ कोई नहीं था!”
24. यह सुन कर बैत-उल-मुक़द्दस के पहरेदारों का कप्तान और राहनुमा इमाम बड़ी उलझन में पड़ गए और सोचने लगे कि अब क्या होगा?
25. इतने में कोई आ कर कहने लगा, “बात सुनें, जिन आदमियों को आप ने जेल में डाला था वह बैत-उल-मुक़द्दस में खड़े लोगों को तालीम दे रहे हैं।”
26. तब बैत-उल-मुक़द्दस के पहरेदारों का कप्तान अपने मुलाज़िमों के साथ रसूलों के पास गया और उन्हें लाया, लेकिन ज़बरदस्ती नहीं, क्यूँकि वह डरते थे कि जमाशुदा लोग उन्हें संगसार न कर दें।
27. चुनाँचे उन्हों ने रसूलों को ला कर इज्लास के सामने खड़ा किया। इमाम-ए-आज़म उन से मुख़ातिब हुआ,
28. “हम ने तो तुम को सख़्ती से मना किया था कि इस आदमी का नाम ले कर तालीम न दो। इस के बरअक्स तुम ने न सिर्फ़ अपनी तालीम यरूशलम की हर जगह तक पहुँचा दी है बल्कि हमें इस आदमी की मौत के ज़िम्मादार भी ठहराना चाहते हो।”
29. पत्रस और बाक़ी रसूलों ने जवाब दिया, “लाज़िम है कि हम पहले अल्लाह की सुनें, फिर इन्सान की।
30. हमारे बापदादा के ख़ुदा ने ईसा को ज़िन्दा कर दिया, उसी शख़्स को जिसे आप ने सलीब पर चढ़वा कर मार डाला था।
31. अल्लाह ने उसी को हुक्मरान और नजातदिहन्दा की हैसियत से सरफ़राज़ करके अपने दहने हाथ बिठा लिया ताकि वह इस्राईल को तौबा और गुनाहों की मुआफ़ी का मौक़ा फ़राहम करे।
32. हम ख़ुद इन बातों के गवाह हैं और रूह-उल-क़ुद्स भी, जिसे अल्लाह ने अपने फ़रमाँबर्दारों को दे दिया है।”
33. यह सुन कर अदालत के लोग तैश में आ कर उन्हें क़त्ल करना चाहते थे।
34. लेकिन एक फ़रीसी आलिम इज्लास में खड़ा हुआ जिस का नाम जम्लीएल था। पूरी क़ौम में वह इज़्ज़तदार था। उस ने हुक्म दिया कि रसूलों को थोड़ी देर के लिए इज्लास से निकाल दिया जाए।
35. फिर उस ने कहा, “मेरे इस्राईली भाइयो, ग़ौर से सोचें कि आप इन आदमियों के साथ क्या करेंगे।
36. क्यूँकि कुछ देर हुई थियूदास उठ कर कहने लगा कि मैं कोई ख़ास शख़्स हूँ। तक़्रीबन 400 आदमी उस के पीछे लग गए। लेकिन उसे क़त्ल किया गया और उस के पैरोकार बिखर गए। उन की सरगर्मियों से कुछ न हुआ।
37. इस के बाद मर्दुमशुमारी के दिनों में यहूदाह गलीली उठा। उस ने भी काफ़ी लोगों को अपने पैरोकार बना कर बग़ावत करने पर उकसाया। लेकिन उसे भी मार दिया गया और उस के पैरोकार मुन्तशिर हुए।
38. यह पेश-ए-नज़र रख कर मेरा मश्वरा यह है कि इन लोगों को छोड़ दें, इन्हें जाने दें। अगर इन का इरादा या सरगर्मियाँ इन्सानी हैं तो सब कुछ ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाएगा।
39. लेकिन अगर यह अल्लाह की तरफ़ से है तो आप इन्हें ख़त्म नहीं कर सकेंगे। ऐसा न हो कि आख़िरकार आप अल्लाह ही के ख़िलाफ़ लड़ रहे हों।” हाज़िरीन ने उस की बात मान ली।
40. उन्हों ने रसूलों को बुला कर उन को कोड़े लगवाए। फिर उन्हों ने उन्हें ईसा का नाम ले कर बोलने से मना किया और फिर जाने दिया।
41. रसूल यहूदी अदालत-ए-आलिया से निकल कर चले गए। यह बात उन के लिए बड़ी ख़ुशी का बाइस थी कि अल्लाह ने हमें इस लाइक़ समझा है कि ईसा के नाम की ख़ातिर बेइज़्ज़त हो जाएँ।
42. इस के बाद भी वह रोज़ाना बैत-उल-मुक़द्दस और मुख़्तलिफ़ घरों में जा जा कर सिखाते और इस ख़ुशख़बरी की मुनादी करते रहे कि ईसा ही मसीह है।

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