Acts (27/28)  

1. जब हमारा इटली के लिए सफ़र मुतअय्यिन किया गया तो पौलुस को चन्द एक और क़ैदियों समेत एक रोमी अफ़्सर के हवाले किया गया जिस का नाम यूलियुस था जो शाही पलटन पर मुक़र्रर था।
2. अरिस्तर्ख़ुस भी हमारे साथ था। वह थिस्सलुनीके शहर का मकिदुनी आदमी था। हम अद्रमित्तियुम शहर के एक जहाज़ पर सवार हुए जिसे सूबा आसिया की चन्द बन्दरगाहों को जाना था।
3. अगले दिन हम सैदा पहुँचे तो यूलियुस ने मेहरबानी करके पौलुस को शहर में उस के दोस्तों के पास जाने की इजाज़त दी ताकि वह उस की ज़रूरियात पूरी कर सकें।
4. जब हम वहाँ से रवाना हुए तो मुख़ालिफ़ हवाओं की वजह से जज़ीरा-ए-क़ुब्रुस और सूबा आसिया के दर्मियान से गुज़रे।
5. फिर खुले समुन्दर पर चलते चलते हम किलिकिया और पम्फ़ीलिया के समुन्दर से गुज़र कर सूबा लूकिया के शहर मूरा पहुँचे।
6. वहाँ क़ैदियों पर मुक़र्रर अफ़्सर को पता चला कि इस्कन्दरिया का एक मिस्री जहाज़ इटली जा रहा है। उस पर उस ने हमें सवार किया।
7. कई दिन हम आहिस्ता आहिस्ता चले और बड़ी मुश्किल से कनिदुस के क़रीब पहुँचे। लेकिन मुख़ालिफ़ हवा की वजह से हम ने जज़ीरा-ए-क्रेते की तरफ़ रुख़ किया और सल्मोने शहर के क़रीब से गुज़र कर क्रेते की आड़ में सफ़र किया।
8. लेकिन वहाँ हम साहिल के साथ साथ चलते हुए बड़ी मुश्किल से एक जगह पहुँचे जिस का नाम ‘हसीन-बन्दर’ था। शहर लसया उस के क़रीब वाक़े था।
9. बहुत वक़्त ज़ाए हो गया था और अब बहरी सफ़र ख़तरनाक भी हो चुका था, क्यूँकि कफ़्फ़ारा का दिन (तक़्रीबन नवम्बर के शुरू में) गुज़र चुका था। इस लिए पौलुस ने उन्हें आगाह किया,
10. “हज़रात, मुझे पता है कि आगे जा कर हम पर बड़ी मुसीबत आएगी। हमें जहाज़, माल-ओ-अस्बाब और जानों का नुक़्सान उठाना पड़ेगा।”
11. लेकिन क़ैदियों पर मुक़र्रर रोमी अफ़्सर ने उस की बात नज़रअन्दाज़ करके जहाज़ के नाख़ुदा और मालिक की बात मानी।
12. चूँकि ‘हसीन-बन्दर’ में जहाज़ को सर्दियों के मौसम के लिए रखना मुश्किल था इस लिए अक्सर लोग आगे फ़ेनिक्स तक पहुँच कर सर्दियों का मौसम गुज़ारना चाहते थे। क्यूँकि फ़ेनिक्स जज़ीरा-ए-क्रेते की अच्छी बन्दरगाह थी जो सिर्फ़ जुनूब-मग़रिब और शिमाल-मग़रिब की तरफ़ खुली थी।
13. चुनाँचे एक दिन जब जुनूब की सिम्त से हल्की सी हवा चलने लगी तो मल्लाहों ने सोचा कि हमारा इरादा पूरा हो गया है। वह लंगर उठा कर क्रेते के साहिल के साथ साथ चलने लगे।
14. लेकिन थोड़ी ही देर के बाद मौसम बदल गया और उन पर जज़ीरे की तरफ़ से एक तूफ़ानी हवा टूट पड़ी जो बाद-ए-शिमाल-मशरिक़ी कहलाती है।
15. जहाज़ हवा के क़ाबू में आ गया और हवा की तरफ़ रुख़ न कर सका, इस लिए हम ने हार मान कर जहाज़ को हवा के साथ साथ चलने दिया।
16. जब हम एक छोटे जज़ीरा बनाम कौदा की आड़ में से गुज़रने लगे तो हम ने बड़ी मुश्किल से बचाओ-कश्ती को जहाज़ पर उठा कर मह्फ़ूज़ रखा। (अब तक वह रस्से से जहाज़ के साथ खैंची जा रही थी।)
17. फिर मल्लाहों ने जहाज़ के ढाँचे को ज़ियादा मज़्बूत बनाने की ख़ातिर उस के इर्दगिर्द रस्से बाँधे। ख़ौफ़ यह था कि जहाज़ शिमाली अफ़्रीक़ा के क़रीब पड़े चोरबालू में धँस जाए। (इन रेतों का नाम सूरतिस था।) इस से बचने के लिए उन्हों ने लंगर डाल दिया ताकि जहाज़ कुछ आहिस्ता चले। यूँ जहाज़ हवा के साथ चलते चलते आगे बढ़ा।
18. अगले दिन भी तूफ़ान जहाज़ को इतनी शिद्दत से झंझोड़ रहा था कि मल्लाह माल-ओ-अस्बाब को समुन्दर में फैंकने लगे।
19. तीसरे दिन उन्हों ने अपने ही हाथों से जहाज़ चलाने का कुछ सामान समुन्दर में फैंक दिया।
20. तूफ़ान की शिद्दत बहुत दिनों के बाद भी ख़त्म न हुई। न सूरज और न सितारे नज़र आए यहाँ तक कि आख़िरकार हमारे बचने की हर उम्मीद जाती रही।
21. काफ़ी देर से दिल नहीं चाहता था कि खाना खाया जाए। आख़िरकार पौलुस ने लोगों के बीच में खड़े हो कर कहा, “हज़रात, बेहतर होता कि आप मेरी बात मान कर क्रेते से रवाना न होते। फिर आप इस मुसीबत और ख़सारे से बच जाते।
22. लेकिन अब मैं आप को नसीहत करता हूँ कि हौसला रखें। आप में से एक भी नहीं मरेगा। सिर्फ़ जहाज़ तबाह हो जाएगा।
23. क्यूँकि पिछली रात एक फ़रिश्ता मेरे पास आ खड़ा हुआ, उसी ख़ुदा का फ़रिश्ता जिस का मैं बन्दा हूँ और जिस की इबादत मैं करता हूँ।
24. उस ने कहा, ‘पौलुस, मत डर। लाज़िम है कि तुझे शहनशाह के सामने पेश किया जाए। और अल्लाह अपनी मेहरबानी से तेरे वास्ते तमाम हमसफ़रों की जानें भी बचाए रखेगा।’
25. इस लिए हौसला रखें, क्यूँकि मेरा अल्लाह पर ईमान है कि ऐसा ही होगा जिस तरह उस ने फ़रमाया है।
26. लेकिन जहाज़ को किसी जज़ीरे के साहिल पर चढ़ जाना है।”
27. तूफ़ान की चौधवीं रात जहाज़ बहीरा-ए-अद्रिया पर बहे चला जा रहा था कि तक़्रीबन आधी रात को मल्लाहों ने मह्सूस किया कि साहिल नज़्दीक आ रहा है।
28. पानी की गहराई की पैमाइश करके उन्हें मालूम हुआ कि वह 120 फ़ुट थी। थोड़ी देर के बाद उस की गहराई 90 फ़ुट हो चुकी थी।
29. वह डर गए, क्यूँकि उन्हों ने अन्दाज़ा लगाया कि ख़त्रा है कि हम साहिल पर पड़ी चटानों से टकरा जाएँ। इस लिए उन्हों ने जहाज़ के पिछले हिस्से से चार लंगर डाल कर दुआ की कि दिन जल्दी से चढ़ जाए।
30. उस वक़्त मल्लाहों ने जहाज़ से फ़रार होने की कोशिश की। उन्हों ने यह बहाना बना कर कि हम जहाज़ के सामने से भी लंगर डालना चाहते हैं बचाओ-कशती पानी में उतरने दी।
31. इस पर पौलुस ने क़ैदियों पर मुक़र्रर अफ़्सर और फ़ौजियों से कहा, “अगर यह आदमी जहाज़ पर न रहें तो आप सब मर जाएँगे।”
32. चुनाँचे उन्हों ने बचाओ कश्ती के रस्से को काट कर उसे खुला छोड़ दिया।
33. पौ फटने वाली थी कि पौलुस ने सब को समझाया कि वह कुछ खा लें। उस ने कहा, “आप ने चौदह दिन से इज़तिराब की हालत में रह कर कुछ नहीं खाया।
34. अब मेहरबानी करके कुछ खा लें। यह आप के बचाओ के लिए ज़रूरी है, क्यूँकि आप न सिर्फ़ बच जाएँगे बल्कि आप का एक बाल भी बीका नहीं होगा।”
35. यह कह कर उस ने कुछ रोटी ली और उन सब के सामने अल्लाह से शुक्रगुज़ारी की दुआ की। फिर उसे तोड़ कर खाने लगा।
36. इस से दूसरों की हौसलाअफ़्ज़ाई हुई और उन्हों ने भी कुछ खाना खाया।
37. जहाज़ पर हम 276 अफ़राद थे।
38. जब सब सेर हो गए तो गन्दुम को भी समुन्दर में फैंका गया ताकि जहाज़ और हल्का हो जाए।
39. जब दिन चढ़ गया तो मल्लाहों ने साहिली इलाक़े को न पहचाना। लेकिन एक ख़लीज नज़र आई जिस का साहिल अच्छा था। उन्हें ख़याल आया कि शायद हम जहाज़ को वहाँ ख़ुश्की पर चढ़ा सकें।
40. चुनाँचे उन्हों ने लंगरों के रस्से काट कर उन्हें समुन्दर में छोड़ दिया। फिर उन्हों ने वह रस्से खोल दिए जिन से पतवार बंधे होते थे और सामने वाले बादबान को चढ़ा कर हवा के ज़ोर से साहिल की तरफ़ रुख़ किया।
41. लेकिन चलते चलते जहाज़ एक चोरबालू से टकरा कर उस पर चढ़ गया। जहाज़ का माथा धँस गया यहाँ तक कि वह हिल भी न सका जबकि उस का पिछला हिस्सा मौजों की टक्करों से टुकड़े टुकड़े होने लगा।
42. फ़ौजी क़ैदियों को क़त्ल करना चाहते थे ताकि वह जहाज़ से तैर कर फ़रार न हो सकें।
43. लेकिन उन पर मुक़र्रर अफ़्सर पौलुस को बचाना चाहता था, इस लिए उस ने उन्हें ऐसा करने न दिया। उस ने हुक्म दिया कि पहले वह सब जो तैर सकते हैं पानी में छलाँग लगा कर किनारे तक पहुँचें।
44. बाक़ियों को तख़्तों या जहाज़ के किसी टुकड़े को पकड़ कर पहुँचना था। यूँ सब सहीह-सलामत साहिल तक पहुँचे।

  Acts (27/28)