| ← Psalms (58/150) → |
| 1. | हे मनुष्यों, क्या तुम सचमुच धर्म की बात बोलते हो? और हे मनुष्यवंशियों क्या तुम सीधाई से न्याय करते हो? |
| 2. | नहीं, तुम मन ही मन में कुटिल काम करते हो; तुम देश भर में उपद्रव करते जाते हो।। |
| 3. | दुष्ट लोग जन्मते ही पराए हो जाते हैं, वे पेट से निकलते ही झूठ बोलते हुए भटक जाते हैं। |
| 4. | उन में सर्प का सा विष है; वे उस नाम के समान हैं, जो सुनना नहीं चाहता; |
| 5. | और सपेरा कैसी ही निपुणता से क्यों न मंत्र पढ़े, तौभी उसकी नहीं सुनता।। |
| 6. | हे परमेश्वर, उनके मुंह में से दांतों को तोड़ दे; हे यहोवा उन जवान सिंहों की दाढ़ों को उखाड़ डाल! |
| 7. | वे घुलकर बहते हुए पानी के समान हो जाएं; जब वे अपने तीर चढ़ाएं, तब तीर मानों दो टुकड़े हो जाएं। |
| 8. | वे घोंघे के समान हो जाएं जो घुलकर नाश हो जाता है, और स्त्री के गिरे हुए गर्भ के समान हो जिसने सूरज को देखा ही नहीं। |
| 9. | उस से पहिले कि तुम्हारी हांडियों में कांटों की आंच लगे, हरे व जले, दोनों को वह बवंडर से उड़ा ले जाएगा।। |
| 10. | धर्मी ऐसा पलटा देखकर आनन्दित होगा; वह अपने पांव दुष्ट के लोहू में धोएगा।। |
| 11. | तब मनुष्य कहने लगेंगे, निश्चय धर्मी के लिये फल है; निश्चय परमेश्वर है, जो पृथ्वी पर न्याय करता है।। |
| ← Psalms (58/150) → |