Matthew (6/28)  

1. सावधान रहो! तुम मनुष्यों को दिखाने के लिये अपने धर्म के काम न करो, नहीं तो अपने स्‍वर्गीय पिता से कुछ भी फल न पाओगे।
2. इसलिये जब तू दान करे, तो अपने आगे तुरही न बजवा, जैसा कपटी, सभाओं और गलियों में करते हैं, ताकि लोग उन की बड़ाई करें, मैं तुम से सच कहता हूं, कि वे अपना फल पा चुके।
3. परन्तु जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बांया हाथ न जानने पाए।
4. ताकि तेरा दान गुप्‍त रहे; और तब तेरा पिता जो गुप्‍त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।।
5. और जब तू प्रार्थना करे, तो कपटियों के समान न हो क्योंकि लोगों को दिखाने के लिये सभाओं में और सड़कों के मोड़ों पर खड़े हो कर प्रार्थना करना उन को अच्छा लगता है; मैं तुम से सच कहता हूं, कि वे अपना प्रतिफल पा चुके।
6. परन्तु जब तू प्रार्थना करे, तो अपनी कोठरी में जा; और द्वार बन्‍द कर के अपने पिता से जो गुप्‍त में है प्रार्थना कर; और तब तेरा पिता जो गुप्‍त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।
7. प्रार्थना करते समय अन्यजातियों की नाईं बक बक न करो; क्योंकि वे समझते हैं कि उनके बहुत बोलने से उन की सुनी जाएगी।
8. सो तुम उन की नाईं न बनो, क्योंकि तुम्हारा पिता तुम्हारे मांगने से पहिले ही जानता है, कि तुम्हारी क्या क्या आवश्यक्ता है।
9. सो तुम इस रीति से प्रार्थना किया करो; “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए।
10. तेरा राज्य आए; तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो।
11. हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे।
12. और जिस प्रकार हम ने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर।
13. और हमें परीक्षा में न ला, परन्तु बुराई से बचा; क्योंकि राज्य और पराक्रम और महिमा सदा तेरे ही हैं।” आमीन।
14. इसलिये यदि तुम मनुष्य के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्‍वर्गीय पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा।
15. और यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा।।
16. जब तुम उपवास करो, तो कपटियों की नाईं तुम्हारे मुंह पर उदासी न छाई रहे, क्योंकि वे अपना मुंह बनाए रहते हैं, ताकि लोग उन्हें उपवासी जानें; मैं तुम से सच कहता हूं, कि वे अपना प्रतिफल पा चुके।
17. परन्तु जब तू उपवास करे तो अपने सिर पर तेल मल और मुंह धो।
18. ताकि लोग नहीं परन्तु तेरा पिता जो गुप्‍त में है, तुझे उपवासी जाने; इस दशा में तेरा पिता जो गुप्‍त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।।
19. अपने लिये पृथ्वी पर धन इकट्ठा न करो; जहां कीड़ा और काई बिगाड़ते हैं, और जहां चोर सेंध लगाते और चुराते हैं।
20. परन्तु अपने लिये स्वर्ग में धन इकट्ठा करो, जहां न तो कीड़ा, और न काई बिगाड़ते हैं, और जहां चोर न सेंध लगाते और न चुराते हैं।
21. क्योंकि जहां तेरा धन है वहां तेरा मन भी लगा रहेगा।
22. शरीर का दिया आंख है: इसलिये यदि तेरी आंख निर्मल हो, तो तेरा सारा शरीर भी उजियाला होगा।
23. परन्तु यदि तेरी आंख बुरी हो, तो तेरा सारा शरीर भी अन्धियारा होगा; इस कारण वह उजियाला जो तुझ में है यदि अन्धकार हो तो वह अन्धकार कैसा बड़ा होगा।
24. कोई मनुष्य दो स्‍वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर ओर दूसरे से प्रेम रखेगा, वा एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्‍छ जानेगा; “तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते”।
25. इसलिये मैं तुम से कहता हूं, कि अपने प्राण के लिये यह चिन्‍ता न करना कि हम क्या खाएंगे? और क्या पीएंगे? और न अपने शरीर के लिये कि क्या पहिनेंगे? क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्‍त्र से बढ़कर नहीं?
26. आकाश के पक्षियों को देखो! वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं; तौभी तुम्हारा स्‍वर्गीय पिता उन को खिलाता है; क्या तुम उन से अधिक मूल्य नहीं रखते।
27. तुम में कौन है, जो चिन्‍ता कर के अपनी अवस्था में एक घड़ी भी बढ़ा सकता है
28. और वस्‍त्र के लिये क्यों चिन्‍ता करते हो? जंगली सोसनों पर ध्यान करो, कि वै कैसे बढ़ते हैं, वे न तो परिश्रम करते हैं, न कातते हैं।
29. तौभी मैं तुम से कहता हूं, कि सुलैमान भी, अपने सारे वैभव में उन में से किसी के समान वस्‍त्र पहिने हुए न था।
30. इसलिये जब परमेश्वर मैदान की घास को, जो आज है, और कल भाड़ में झोंकी जाएगी, ऐसा वस्‍त्र पहिनाता है, तो हे अल्पविश्वासियों, तुम को वह क्योंकर न पहिनाएगा?
31. इसलिये तुम चिन्‍ता कर के यह न कहना, कि हम क्या खाएंगे, या क्या पीएंगे, या क्या पहिनेंगे?
32. क्योंकि अन्यजाति इन सब वस्‍तुओं की खोज में रहते हैं, और तुम्हारा स्‍वर्गीय पिता जानता है, कि तुम्हें ये सब वस्तुएं चाहिए।
33. इसलिये पहिले तुम उसे राज्य और धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएं भी तुम्हें मिल जाएंगी।
34. सो कल के लिये चिन्‍ता न करो, क्योंकि कल का दिन अपनी चिन्‍ता आप कर लेगा; आज के लिये आज ही का दुख बहुत है।।

  Matthew (6/28)