Job (6/42)  

1. फिर अय्यूब ने कहा,
2. भला होता कि मेरा खेद तौला जाता, और मेरी सारी विपत्ति तुला में धरी जाती!
3. क्योंकि वह समुद्र की बालू से भी भारी ठहरती; इसी कारण मेरी बातें उतावली से हूई हैं।
4. क्योंकि सर्वशक्तिमान के तीर मेरे अन्दर चुभे हैं; और उनका विष मेरी आत्मा में पैठ गया है; ईश्वर की भयंकर बात मेरे विरुद्ध पांति बान्धे है।
5. जब बनैले गदहे को घास मिलती, तब क्या वह रेंकता है? और बैल चारा पाकर क्या डकारता है?
6. जो फीका है वह क्या बिना नमक खाया जाता है? क्या अण्डे की सफेदी में भी कुछ स्वाद होता है?
7. जिन वस्तुओं को मैं छूना भी नहीं चाहता वही मानो मेरे लिये घिनौना आहार ठहरी हैं।
8. भला होता कि मुझे मुंह मांगा वर मिलता और जिस बात की मैं आशा करता हूँ वह ईश्वर मुझे दे देता!
9. कि ईश्वर प्रसन्न हो कर मुझे कुचल डालता, और हाथ बढ़ा कर मुझे काट डालता!
10. यही मेरी शान्ति का कारण; वरन भारी पीड़ा में भी मैं इस कारण से उछल पड़ता; क्योंकि मैं ने उस पवित्र के वचनों का कभी इनकार नहीं किया।
11. मुझ में बल ही क्या है कि मैं आशा रखूं? और मेरा अन्त ही क्या होगा, कि मैं धीरज धरूं?
12. क्या मेरी दृढ़ता पत्थरों की सी है? क्या मेरा शरीर पीतल का है?
13. क्या मैं निराधार नहीं हूँ? क्या काम करने की शक्ति मुझ से दूर नहीं हो गई?
14. जो पड़ोसी पर कृपा नहीं करता वह सर्वशक्तिमान का भय मानना छोड़ देता है।
15. मेरे भाई नाले के समान विश्वासघाती हो गए हैं, वरन उन नालों के समान जिनकी धार सूख जाती है;
16. और वे बरफ के कारण काले से हो जाते हैं, और उन में हिम छिपा रहता है।
17. परन्तु जब गरमी होने लगती तब उनकी धाराएं लोप हो जाती हैं, और जब कड़ी धूप पड़ती है तब वे अपनी जगह से उड़ जाते हैं
18. वे घूमते घूमते सूख जातीं, और सुनसान स्थान में बहकर नाश होती हैं।
19. तेमा के बनजारे देखते रहे और शबा के काफिले वालों ने उनका रास्ता देखा।
20. वे लज्जित हुए क्योंकि उन्होंने भरोसा रखा था और वहां पहुँचकर उनके मुंह सूख गए।
21. उसी प्रकार अब तुम भी कुछ न रहे; मेरी विपत्ति देखकर तुम डर गए हो।
22. क्या मैं ने तुम से कहा था, कि मुझे कुछ दो? वा अपनी सम्पत्ति में से मेरे लिये घूस दो?
23. वा मुझे सताने वाले के हाथ से बचाओ? वा उपद्रव करने वालों के वश से छुड़ा लो?
24. मुझे शिक्षा दो और मैं चुप रहूंगा; और मुझे समझाओ, कि मैं ने किस बान में चूक की है।
25. सच्चाई के वचनों में कितना प्रभाव होता है, परन्तु तुम्हारे विवाद से क्या लाभ होता है?
26. क्या तुम बातें पकड़ने की कल्पना करते हो? निराश जन की बातें तो वायु की सी हैं।
27. तुम अनाथों पर चिट्ठी डालते, और अपने मित्र को बेचकर लाभ उठाने वाले हो।
28. इसलिये अब कृपा कर के मुझे देखो; निश्चय मैं तुम्हारे साम्हने कदापि झूठ न बोलूंगा।
29. फिर कुछ अन्याय न होने पाए; फिर इस मुक़द्दमे में मेरा धर्म ज्यों का त्यों बना है, मैं सत्य पर हूँ।
30. क्या मेरे वचनों में कुछ कुटिलता है? क्या मैं दुष्टता नहीं पहचान सकता?

  Job (6/42)