← Job (26/42) → |
1. | तब अय्यूब ने कहा, |
2. | निर्बल जन की तू ने क्या ही बड़ी सहायता की, और जिसकी बांह में सामर्थ्य नहीं, उसको तू ने कैसे सम्भाला है? |
3. | निर्बुद्धि मनुष्य को तू ने क्या ही अच्छी सम्मति दी, और अपनी खरी बुद्धि कैसी भली भांति प्रगट की है? |
4. | तू ने किसके हित के लिये बातें कही? और किसके मन की बातें तेरे मुंह से निकलीं? |
5. | बहुत दिन के मरे हुए लोग भी जलनिधि और उसके निवासियों के तले तड़पते हैं। |
6. | अधोलोक उसके साम्हने उघड़ा रहता है, और विनाश का स्थान ढंप नहीं सकता। |
7. | वह उत्तर दिशा को निराधार फैलाए रहता है, और बिना टेक पृथ्वी को लटकाए रखता है। |
8. | वह जल को अपनी काली घटाओं में बान्ध रखता, और बादल उसके बोझ से नहीं फटता। |
9. | वह अपने सिंहासन के साम्हने बादल फैला कर उसको छिपाए रखता है। |
10. | उजियाले और अन्धियारे के बीच जहां सिवाना बंधा है, वहां तक उसने जलनिधि का सिवाना ठहरा रखा है। |
11. | उसकी घुड़की से आकाश के खम्भे थरथरा कर चकित होते हैं। |
12. | वह अपने बल से समुद्र को उछालता, और अपनी बुद्धि से घपण्ड को छेद देता है। |
13. | उसकी आत्मा से आकाशमण्डल स्वच्छ हो जाता है, वह अपने हाथ से वेग भागने वाले नाग को मार देता है। |
14. | देखो, ये तो उसकी गति के किनारे ही हैं; और उसकी आहट फुसफुसाहट ही सी तो सुन पड़ती है, फिर उसके पराक्रम के गरजने का भेद कौन समझ सकता है? |
← Job (26/42) → |