← Psalms (104/150) → |
1. | हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह! हे यहोवा, हे मेरे परमेश्वर, तू है अतिमहान! तूने महिमा और आदर के वस्त्र पहने हैं। |
2. | तू प्रकाश से मण्डित है जैसे कोई व्यक्ति चोंगा पहने। तूने व्योम जैसे फैलाये चंदोबा हो। |
3. | हे परमेश्वर, तूने उनके ऊपर अपना घर बनाया, गहरे बादलों को तू अपना रथ बनाता है, और पवन के पंखों पर चढ़ कर आकाश पार करता है। |
4. | हे परमेश्वर, तूने निज दूतों को वैसे बनाया जैसे पवन होता है। तूने निज दासों को अग्नि के समान बनाया। |
5. | हे परमेश्वर, तूने ही धरती का उसकी नीवों पर निमार्ण किया। इसलिए उसका नाश कभी नहीं होगा। |
6. | तूने जल की चादर से धरती को ढका। जल ने पहाड़ों को ढक लिया। |
7. | तूने आदेश दिया और जल दूर हट गया। हे परमेश्वर, तू जल पर गरजा और जल दूर भागा। |
8. | पर्वतों से निचे घाटियों में जल बहने लगा, और फिर उन सभी स्थानों पर जल बहा जो उसके लिये तूने रचा था। |
9. | तूने सागरों की सीमाएँ बाँध दी और जल फिर कभी धरता को ढकने नहीं जाएगा। |
10. | हे परमेश्वर, तूने ही जल बहाया। सोतों से नदियों से नीचे पहाड़ी नदियों से पानी बह चला। |
11. | सभी वन्य पशुओं को धाराएँ जल देती हैं, जिनमें जंगली गधे तक आकर के प्यास बुझाते हैं। |
12. | वन के परिंदे तालाबों के किनारे रहने को आते हैं और पास खड़े पेड़ों की डालियों में गाते हैं। |
13. | परमेश्वर पहाड़ों के ऊपर नीचे वर्षा भेजता है। परमेश्वर ने जो कुछ रचा है, धरती को वह सब देता है जो उसे चाहिए। |
14. | परमेश्वर, पशुओं को खाने के लिये घास उपजाई, हम श्रम करते हैं और वह हमें पौधे देता है। ये पौधे वह भोजन है जिसे हम धरती से पाते हैं। |
15. | परमेश्वर, हमें दाखमधु देता है, जो हमको प्रसन्न करती है। हमारा चर्म नर्म रखने को तू हमें तेल देता है। हमें पुष्ट करने को वह हमें खाना देता है। |
16. | लबानोन के जो विशाल वृक्ष हैं वह परमेश्वर के हैं। उन विशाल वृक्षों हेतु उनकी बढ़वार को बहुत जल रहता है। |
17. | पक्षी उन वृक्षों पर निज घोंसले बनाते। सनोवर के वृक्षों पर सारस का बसेरा है। |
18. | बनैले बकरों के घर ऊँचे पहाड़ में बने हैं। बिच्छुओं के छिपने के स्थान बड़ी चट्टान है। |
19. | हे परमेश्वर, तूने हमें चाँद दिया जिससे हम जान पायें कि छुट्टियाँ कब है। सूरज सदा जानता है कि उसको कहाँ छिपना है। |
20. | तूने अंधेरा बनाया जिससे रात हो जाये और देखो रात में बनैले पशु बाहर आ जाते और इधर—उधर घूमते हैं। |
21. | वे झपटते सिंह जब दहाड़ते हैं तब ऐसा लगता जैसे वे यहोवा को पुकारते हों, जिसे माँगने से वह उनको आहार देता। |
22. | और पौ फटने पर जीवजन्तु वापस घरों को लौटते और आराम करते हैं। |
23. | फिर लोग अपना काम करने को बाहर निकलते हैं। साँझ तक वे काम में लगे रहते हैं। |
24. | हे यहोवा, तूने अचरज भरे बहुतेरे काम किये। धरती तेरी वस्तुओं से भरी पड़ी है। तू जो कुछ करता है, उसमें निज विवेक दर्शाता है। |
25. | यह सागर देखे! यह कितना विशाल है! बहुतेरे वस्तुएँ सागर में रहती हैं! उनमें कुछ विशाल है और कुछ छोटी हैं! सागर में जो जीवजन्तु रहते हैं, वे अगणित असंख्य हैं। |
26. | सागर के ऊपर जलयान तैरते हैं, और सागर के भीतर महामत्स्य जो सागर के जीव को तूने रचा था, क्रीड़ा करता है। |
27. | यहोवा, यह सब कुछ तुझ पर निर्भर है। हे परमेश्वर, उन सभी जीवों को खाना तू उचित समय पर देता है। |
28. | हे परमेश्वर, खाना जिसे वे खाते है, वह तू सभी जीवों को देता है। तू अच्छे खाने से भरे अपने हाथ खोलता है, और वे तृप्त हो जाने तक खाते हैं। |
29. | फिर जब तू उनसे मुख मोड़ लेता तब वे भयभीत हो जाते हैं। उनकी आत्मा उनको छोड़ चली जाती है। वे दुर्बल हो जाते और मर जाते हैं और उनकी देह फिर धूल हो जाती है। |
30. | हे यहोवा, निज आत्मा का अंश तू उन्हें दे। और वह फिर से स्वस्थ हो जोयेंगे। तू फिर धरती को नयी सी बना दे। |
31. | यहोवा की महिमा सदा सदा बनी रहे! यहोवा अपनी सृष्टि से सदा आनन्दित रहे! |
32. | यहोवा की दृष्टि से यह धरती काँप उठेगी। पर्वतों से धुआँ उठने लग जायेगा। |
33. | मैं जीवन भर यहोवा के लिये गाऊँगा। मैं जब तक जीता हूँ यहोवा के गुण गाता रहूँगा। |
34. | मुझको यह आज्ञा है कि जो कुछ मैंने कहा है वह उसे प्रसन्न करेगा। मैं तो यहोवा के संग में प्रसन्न हूँ! |
35. | धरती से पाप का लोप हो जाये और दुष्ट लोग सदा के लिये मिट जाये। ओ मेरे मन यहोवा कि प्रशंसा कर। यहोवा के गुणगान कर! |
← Psalms (104/150) → |